बीस वर्ष की मुनिया फूट-फूट कर रो पडी। उसका बापू और उसकी मां उसे लगातार समझा रहे थे कि साइकिल चोरी हो गई तो क्या दूसरी आ जाएगी, परंतु वह लगातार रोए जा रही थी। वह उनके आश्वासन के प्रति आश्वस्त नहीं थी। उसे संभवत: इस बात का आभास था कि अब फिर से साइकिल नहीं आने वाली और इसलिए वह रो रही थी। उसके बापू ने आकाश की ओर देखा और निराश होकर बाहर चला गया तो उसकी मां ने उसे क्रोध में आ कर पीट दिया। तमाचा खा कर वह शांत हो गई और मां ने बिगडते हुए कहा- बहुतों को साइकिल नहीं मिली है तो वे क्या स्कूल नहीं जातीं?.. पढना है तो पढ, नहीं पढना है तो मत पढ। हम गरीबों के सपने कभी भी पूरे नहीं होते। आंसू बहाना बंद कर। स्कूल से ही तो मिली थी, भाग्य में नहीं थी,- चली गई। जब साइकिल नहीं मिली थी तो भी तो स्कूल जाया करती थी। समझ ले नहीं मिली और जा। वैसे भी पढ-लिखकर क्या करेगी?- कौन सी तुझे नौकरी करनी है, बाबूगिरी करनी है? चूल्हा-चौका ही तो करना है। ...
Tuesday, 11 October 2011
Friday, 30 September 2011
एक प्रयास..पत्रकारिता करने के इच्छुक छात्रों और आमजन के लिये...
पत्रकारिता(journalism) आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, लिखना, रिपोर्ट करना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं। आज के युग में पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि।
विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं). वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे । ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे। 15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़्बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नक़ल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।
भारत में हिंदी पत्रकारिता – ऐतिहासिक सम-सामयिक परिदृश्यपंडित बनारसी दास चतुर्वेदी ने एक स्थान पर लिखा है कि “पत्रकारिता को युगों की अवधि में ठीक-ठीक निश्चित करना कोई आसान काम नहीं है । एक युग दूसरे युग से मिलजुल जाता है । की पत्र एक युग में आरंभ होता है, दूसरे युग में उसका यौवन प्रस्फुटित होता है और संभवतः तीसरे युग में उसका अंत भी हो जाता है ।”
वास्तव में हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है । सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था । उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे । गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890त्तीय चरण – सन् 1890 से बाद तक
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है–
1. आरंभिक युग 1826 से 1867
2. उत्थान एवं अभिवृद्धि
प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
3.विकास युग
प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
4.सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए । सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है ।
काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
1. बीज वपन काल
2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
3. राष्ट्रीय जागरण काल
4. लोकतंत्र और प्रेस
डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर –इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया ।
डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है । इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है । किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर । इनमें एकरूपता का अभाव है । अध्ययन की सुविदा के लिए हमने डॉ. सुशीला जोशी द्वारा किए गए काल विभाजन के आधार पर विश्लेषण किया है – (जो अग्रलिखित पृष्ठों पर है)
हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)
कलकत्ता से 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है । पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है । साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्वपूर्ण बन गया ।
पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है । प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्व था । यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने ‘बंगदूत’ समाचार पत्र निकाला जो बंगला, फारसी, अंग्रेजी तथा हिंदी में प्रकाशित हुआ । बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है । लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है । ‘बंगदूदत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला ।
बनारस अखबार वं सुधाकर – उत्तर-प्रदेश से गोविन्द नारायण थत्ते के सम्पादन में जनवरी, 1845 में ‘बनारस अखबार’ का प्रकाशनन आरंभ हुआ । इसके संचालक राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्द थे । बहुत से लोग इसे ही हिंदी का पहला अखबार मानते हैं, परंतु यह हिंदी भाषी क्षेत्र का प्रथम समाचार पत्र माना जा सकता है । इसमें देवनागरी लिपि के प्रयोग के बावजूद अरबी व फारसी के शब्दों की भरमार थी, जिसे समझना साधारण जनता के लिए कठिन था। पंडित अंबिका प्रसाद वाजेपयी लिखतेहैं – ‘बनारस अखबार की निकम्मी भाषा का उत्तरदायित्व यदि किसी एक पुरुष पर है तो वे राजा शिव प्रसाद सिंह हैं ।’ 1850 में बनारस से ही तारा मोहन मैत्रेय के संपादन में ‘सुधाकर’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । यह पत्र साप्ताहिक था तथा बंगला एवं हिंदी दोनों में प्रकाशित होता था । भाषा की दृष्टि से ‘सुधाकर’ को हिंदी प्रदेश का पहला पत्र कहना चाहिए । 1853 में यह पत्र सिर्फ हिंदी में छपने लगा। ‘बनारस अखबार’ एवं ‘सुधाकर’ के बाद ‘मार्तण्ड’ (11 जून, 1846), ज्ञान दीपक (1846), मालवा अखबार (1894), जगदीपक भास्कर (1849), सामदण्ड मार्तण्ड (1850), फूलों का हार (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), मजहरुल सरुर (1852), ग्वालियर गजट (1853), आदि पत्र निकले । मुंशी सदासुखलाल के संपादन में आगरा से बुद्धि प्रकाश नामक यह पत्र पत्रकारिता के दृष्टि से ही नहीं वरन भाषा व शैली की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है । प्रख्यात समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उसकी भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा है – “बुद्धि प्रकाश की भाषा उस समय की भाषा को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी ।”
समाचार सुधावर्षण – अब धीरे-धीरे हिंदी पत्रों की संख्या बढ़ने लगी । लोगों की दृष्टि पत्रकारिता की ओर उन्मुख हुई । सन् 1854 में कलकत्ता से श्यामसुंदर सेन के संपादन में हिंदी के पहले दैनिक समाचार पत्र ‘समाचार सुधावर्षण’ का प्रकाशन हुआ । यह द्विभाषीय पत्र था, तथा हिंदी व बंगला में छपता था । अपनी निर्भीकता एवं प्रगतिशीलता के कारण उसे कई बार अंग्रेजी सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा । 1855 में ‘सर्वहितकारक’ (आगरा) और ‘प्रजा हितैषी’ का प्रकाशन हुआ । 1857 में एकमात्र पत्र निकला जिसका नाम ‘पयामे आजादी’ था ।
पयामे आजादी – दिल्ली से फरवरी 1857 में प्रकाशित पयामे आजादी का प्रकाशन प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अजीमुल्ला खां ने किया था । इसके प्रकाशक एवं मुद्रक नवाब बहादुर शाह जफर पौत्र केदार बख्त थे । यह पत्र पहले उर्दू में निकला, बाद में हिंदी में भी इसका प्रकाशन हुआ । इस पत्र में सरकार विरोधी सामग्री होती थी । इस पत्र ने दिल्ली की जनता में स्वतंत्रता प्रेम की आग फूंक दी । इसी पत्र में भारत का तत्कालीन राष्ट्रीय गीत छपा था, उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं –
“हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा ।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा ।।
आज शहीदों ने तुझको, अहले वतन ललकारा ।
तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा ।।”
1861 में हिंदी प्रदेश से चार पत्र निकले जिनमें ‘सूरज प्रकाश’ (आगरा), ‘जगलाभ चिंतक’ (अजमेर), ‘प्रजाहित’ (इटावा), ‘ज्ञानदीपक’ (सिकंदरा) शामिल थे । इसके पश्चात 1863 में ‘लोकमित्र’ (मासिक), ‘भारत खंडामृत’ (1864 – आगरा), ‘तत्वबोधिनी’ (1866 – बरेली), ‘ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका’ (1866 – लाहौर), आदि पत्र प्रकाशित हुए । अब तक हिंदी में छपने वाले पत्रों की संख्या पर्याप्त हो चली थी, पर पाठकाभाव, अर्थाभाव के चलते ये जल्द ही काल-कवलित हो जाते थे । 1867 में ‘कवि वचन सुधा’ का प्रकाशन एक क्रांतिकारी घटना थी । भारतेंदु हरीश चंद्र के संपादन में प्रकाशित इस पत्र ने हिंदी साहित्य व पत्रकारिता को नए आयाम दिए । डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – “कवि वचन सुधा क प्रकाशन कर भारतेंदु ने एक नए युग का सूत्रपात किया ।” 1867 में ‘कवि वचन सुधा’ के अलावा ‘वृतान्त विलास’ (जम्मू), ‘सर्वजनोपकारक’ (आगरा), रतन प्रकाश (रतलाम), विद्याविलास (जम्मू) का प्रकाशन हुआ ।
हिंदी पत्रकारिता का विकास काल (1867-1900)
1867 तक विदेशी शिक्षा के कारण परम्परावादी विचारधारा का लोप हो रहा था, अतः अनेक समाज सुधारकों ने अपनी संस्थाएं कायम की और इसी शिक्षित वर्ग ने पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान की । हिंदी पत्रकारिता का यह युग हिंदी गद्य-निर्माण का युग माना जाता है । इस युग के पत्रों में राजनीति, साहित्य, प्रहसन, व्यंग्य तथा ललित निबन्धों की संख्या अधिक रहती थी । इन पत्रों का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक, कलुष प्रक्षालन और जातीय उन्नयन था । इस युग का नेतृत्व बाबू हरिशचन्द्र कर रहे थे । यह समय अंग्रेज अधिकारियों की गुलामी का था, परन्तु भारतेंदु जी निडर भाव से राजनैतिक लेख लिखकर जनता-जनार्दन को झकझोर रहे थे । यही कारण है कि यह युग भारतेंदु युग के नाम से भी प्रसिद्ध है । इस युग में अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ ।
हरिश्चन्द्र मैगजीन – 15 अक्टूबर, 1873 को काशी से भारतेंदु हरिश चन्द्र ने ही ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ को जन्म दिया । यह मासिक पत्रिका थी । इसमें पुरातत्व, उपन्यास, कविता, आलोचना, ऐतिहासिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा दार्शनिक लेख, कहानियाँ एवं व्यंग्य आदि प्रकाशित होते थे । लेकिन जब इसमें देशभक्तिपूर्ण लेख निकलने लगे तो इसे बंद कर दिया गया । ‘बाला-बोधिनी पत्रिका’ 9 जनवरी, 1874 को भारतेंदु ने निकाली । यह पत्रिका महिलाओं की मासिक पत्रिका थी ।
हिंदी प्रदीप – 1 सितम्बर, 1877 को बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ नाम का मासिक पत्र निकाला । यह पत्र घोर संकट के बावजूद भी 35 वर्षों तक निकलता रहा । भारतेंदु जी ने इस पत्र का उद्घाटन किया । पत्रकारिता की दृष्टि से हींदी प्रदीप का जन्म हिंदी साहित्य के इतिहास में क्रांतिकारी घटना है । इसने हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा प्रदान की । इसका स्वर राष्ट्रीयता, निर्भीकता तथा तेजस्विता का था, अतः सरकार इर पर कड़ी नजर रखती थी । इसमे हिंदी साहित्य और पत्रकारिता पर सामग्री रहती थी ।
भारत मित्र - 17 मई, 1878 को कलकत्त से यह पत्र प्रकाशित हुआ । जिस समय यह पत्र प्रकाशित हुआ, उस समय वहां से हिंदी का कोई भी पत्र नहीं निकलता था । यह बड़ा प्रसिद्ध और कर्मशील पत्र था । भारत मित्र के कुशल संपादन के कारण इसकी गणना अच्छे पत्रों में होने लगी थी । भारत मित्र की सबसे पहले वैतनिक संपादक पंडित हरमुकुन्द शास्त्री लाहौर से बुलाए गए । इस पत्र की आयु काफी रही । यह पत्र 37 वर्षों तक चला ।
सार सुधानिधि – 13 अप्रैल, 1879 को प्रकाशित सार सुधानिधि पंडित सदानन्दजी के सम्पादन में निकला । इसके संयुक्त संपादक पंडित दुर्गाप्रसाद, सहायक संपादक गोविन्द नारायण और व्यवस्थापक शम्भूनाथ थे । इसकी भाषा संस्कृत मिश्रित थी, अतः कुछ कठिन होती थी, पर साफ थी । लेख अच्छे गंभीर होते थे । यह पत्र राजनीति ही नहीं, अन्य विषयों का भी आलोचक था । यह पत्र राजनीति ही नहीं, अन्य विषयों का भी आलोचक था ।
सज्जन कीर्ति सुधाकर – ज्यों से निकलने वाला पहला हिंदी पत्र था, क्योंकि राज्यों के सभी पत्र उर्दू व हिंदी में निकलते थे, जिनमें उर्दू का ही प्रथम स्थान होता था । मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह के नाम पर यह पत्र निकला था, यह पत्र 1879 में आगरा के पंडित बंशीधर वाजपेयी के सम्पादन में प्रकाशित हुआ ।
उचित वक्ता – पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र ने 7 अगस्त, 1880 को उचित वक्ता को जन्म दिया । मीठी-मीठी कटारी मारने, व्यंग्य, मुंह चिढ़ाने में उचित वक्ता पंच का काम करता था । यह पत्र 15 वर्षों तक प्रकाशित हुआ । इसने इल्बर्ट बिल, प्रेस कानून, वर्नाक्यूलर एक्ट का बड़ी निर्भीकता से विरोध किया ।
भारत जीवन – बाबू रामकृष्ण वर्मा ने काशी से 3 मार्च 1884 को भारत जीवन प्रकाशित किया । यह पहले चार पृष्ठ का था, बाद में 8 पृष्ठों में छपने लगा । इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया था । यह पत्र 30 वर्षों तक प्रकाशित हुआ । भारत जीवन सदा एक दब्बू अखबार रहा । स्वाधीनता पूर्व साहस से इसने कभी नहीं लिखा ।
हिन्दोस्थान – 1885 में राजा रामपाल सिंह लन्दन से इसे कालाकांकर (प्रतापगढ़) ले आए और यहां इसके हिंदी, अंग्रेज संस्करण प्रकाशित होने लगे । यह उत्तर प्रदेश से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के संपादन में निकला । यह हिंदी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाला प्रथम संपूर्ण हिंदी दैनिक पत्र था । इसके सहयोगी नवरतन प्रसिद्ध थे ।
शुभचिन्तक – 1887 में जबलपुर से पंडित रामगुलाम अवस्थी के समपादन में शुभ-चिन्तक पत्र निकला । यह पत्र साप्ताहिक था । बाद में इसके संपादक हितकारिणी स्कूल के हैटमास्टर रायसाहब रघुवरप्रसाद द्विवेदी हो गए ।
हिंदी बंगवासी – हिंदी बंगवासी 1890 में कलकत्ता से पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती के सम्पादन में निकला । यह एकदम नए ढंग का अखबार था । इस पत्र का अपना ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि सभी श्रेष्ठ पत्रकारों ने इसका सम्पादन कार्य किया था । जिनमें सर्वश्री बालमुकुन्द गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, लक्ष्मीनारायण गर्दे आदि प्रमुख थे । यह पत्र दीर्घजीवी रहा । इस प्रकार यह पत्र हिंदी के वरिष्ठ पत्रकारों का प्राथमिक विद्यालय सिद्ध हुआ ।
साहित्य सुधानिधि – हिंदी बंगवासी के बाद मुजफ्फरपुर से जनवरी 1893 को बाबू देवकीनन्दन खत्री ने साहित्य सुधानिधि का प्रकाशन किया । इसके सम्पादक मण्डल में बड़े-बड़े साहित्यकार – बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर, बाबू राधाराम, राय कृष्णदास, बाबू कीर्तिप्रसाद धे ।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका – यह पत्रिका 1896 में नागरी प्रचारिणी सभा ने त्रैमासिक रूप में प्रकाशित की थी । इसके सम्पाक बाबू श्यामसुन्दर दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, कालीदास और राधाकृष्ण दास थे । 1907 में यह मासिक पत्रिका हो गई और इसके सम्पादक श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र शर्मा और वेणीप्रसाद बनाए गए ।
हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)
सरस्वती – सन 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण है । 1900 में प्रकाशित सरस्वती पत्रिका अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है । वह अपनी छपाई, सफाई, कागज और चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई । इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था । इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदास थे । 1903 में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा । इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था । इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ । इस समय जो भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओं से टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई ।
हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)
अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया । 1947 में देश को आजादी मिली । लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ । औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई । जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ । रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी ।
आजादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार का माध्यम बनती जा रही है । परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई ।
यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसके उत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं । पत्रकारिता एक निष्ठापूर्ण कर्म है और पत्रकार एक दायित्वशील व्यक्ति होता है । अतः यदि हमें स्वच्छ पत्रकारिता को विकसित करना है तो पत्रकारिता के क्षेत्र में हुई अनधिकृत घुसपैठ को समाप्त करना होगा, उसे जीवन मूल्यों से जोड़ना होगा, उसे आचरणिक कर्मों का प्रतीक बनाना होगा और प्रचारवादी मूल्यों को पीछे धकेल कर पत्रकारिता को जीवन, समाज, संस्कृति और कला का स्वच्छ दर्पण बनाना होगा, पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों को अतीत से शिक्षा लेकर वर्तमान को समेटते हुए भविष्य का दिशानिर्देशन भी करना चाहिए ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास यानी दो-चार वर्ष आगे-पीछे कई दैनिक, साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ । जिसमें कुच तो निरंतर प्रगति कर रही हैं तथा कुछ बंद हो गई हैं ।
प्रमुख पत्रों में नवभारत टाइम्स (1947), हिन्दुस्तान (1936), नवभारत (1938), नई दुनिया (1947), आर्यावर्त (1941), आज (1920), इंदौर समाचार (1946), जागरण (1947), स्वतंत्र भारत (1947), युगधर्म (1951), सन्मार्ग (1951), वीर-अर्जुन (1954), पंजाब केसरी (1964), दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका (1956), अमर उजाल (1948), दैनिक भास्कर (1958), तरूण भारत (1974), नवजीवन (1974), स्वदेश (1966), देशबंधु (1956), जनसत्ता 1903), रांची एक्सप्रेस, प्रभात खबर आदि शामिल हैं ।इसमें तरूण भारत और युगधर्म का प्रकाशन बंद हो चुका है । शेष निरन्तर प्रगति कर रहे हैं । साप्ताहिक पत्रों में ब्लिट्ज (1962), पाञ्चजन्य (1947), करंट, चौथी दुनिया (1986), संडे मेल (1987), संडे आब्जर्वर (1947), दिनमान टाइम्स (1990) प्रमुख रहे । इनमें से पाञ्चजन्य के अलावा सभी बंद हो चुके हैं । प्रमुख पत्रिकाओं में धर्मयुग (1950), साप्ताहिक हिन्दुस्तान (1950), दिनमान (1964), रविवार (1977), अवकाश 1982), खेल भारती (1982), कल्याण (1926), माधुरी (1964), पराग (1960), कादम्बिनी (1960), नन्दन (1964), सारिका (1970), चन्दामा (1949), नवनीत (1952), सरिता (1964), मनोहर कहानियां (1939), मनोरमा (1924), गृहशोभा, वामा, गंगा (1985), इंडिया टुडे (1986), माया हैं । इनमें से दिनमान, रविवार, अवकाश, पराग, गंगा, माधुरी अब बंद हो चुकी हैं । इनमें से दिनमान ने नई प्रवृत्तियां प्रारंभ की थी । अतिथि सम्पादक की परम्परा प्रारम्भ की, जिसमें कई राजनेता, साहित्यकार व कलाप्रेमी अतिथि सम्पादक बने । वहीं रविवार खोजपूर्ण रिपोर्टिंग के लिए विख्यात रहा है ।
विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं). वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे । ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे। 15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़्बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नक़ल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।
भारत में हिंदी पत्रकारिता – ऐतिहासिक सम-सामयिक परिदृश्यपंडित बनारसी दास चतुर्वेदी ने एक स्थान पर लिखा है कि “पत्रकारिता को युगों की अवधि में ठीक-ठीक निश्चित करना कोई आसान काम नहीं है । एक युग दूसरे युग से मिलजुल जाता है । की पत्र एक युग में आरंभ होता है, दूसरे युग में उसका यौवन प्रस्फुटित होता है और संभवतः तीसरे युग में उसका अंत भी हो जाता है ।”
वास्तव में हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है । सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था । उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे । गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890त्तीय चरण – सन् 1890 से बाद तक
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है–
1. आरंभिक युग 1826 से 1867
2. उत्थान एवं अभिवृद्धि
प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
3.विकास युग
प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
4.सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए । सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है ।
काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
1. बीज वपन काल
2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
3. राष्ट्रीय जागरण काल
4. लोकतंत्र और प्रेस
डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर –इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया ।
डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है । इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है । किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर । इनमें एकरूपता का अभाव है । अध्ययन की सुविदा के लिए हमने डॉ. सुशीला जोशी द्वारा किए गए काल विभाजन के आधार पर विश्लेषण किया है – (जो अग्रलिखित पृष्ठों पर है)
हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)
कलकत्ता से 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है । पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है । साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्वपूर्ण बन गया ।
पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है । प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्व था । यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय ने ‘बंगदूत’ समाचार पत्र निकाला जो बंगला, फारसी, अंग्रेजी तथा हिंदी में प्रकाशित हुआ । बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है । लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है । ‘बंगदूदत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला ।
बनारस अखबार वं सुधाकर – उत्तर-प्रदेश से गोविन्द नारायण थत्ते के सम्पादन में जनवरी, 1845 में ‘बनारस अखबार’ का प्रकाशनन आरंभ हुआ । इसके संचालक राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्द थे । बहुत से लोग इसे ही हिंदी का पहला अखबार मानते हैं, परंतु यह हिंदी भाषी क्षेत्र का प्रथम समाचार पत्र माना जा सकता है । इसमें देवनागरी लिपि के प्रयोग के बावजूद अरबी व फारसी के शब्दों की भरमार थी, जिसे समझना साधारण जनता के लिए कठिन था। पंडित अंबिका प्रसाद वाजेपयी लिखतेहैं – ‘बनारस अखबार की निकम्मी भाषा का उत्तरदायित्व यदि किसी एक पुरुष पर है तो वे राजा शिव प्रसाद सिंह हैं ।’ 1850 में बनारस से ही तारा मोहन मैत्रेय के संपादन में ‘सुधाकर’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । यह पत्र साप्ताहिक था तथा बंगला एवं हिंदी दोनों में प्रकाशित होता था । भाषा की दृष्टि से ‘सुधाकर’ को हिंदी प्रदेश का पहला पत्र कहना चाहिए । 1853 में यह पत्र सिर्फ हिंदी में छपने लगा। ‘बनारस अखबार’ एवं ‘सुधाकर’ के बाद ‘मार्तण्ड’ (11 जून, 1846), ज्ञान दीपक (1846), मालवा अखबार (1894), जगदीपक भास्कर (1849), सामदण्ड मार्तण्ड (1850), फूलों का हार (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), मजहरुल सरुर (1852), ग्वालियर गजट (1853), आदि पत्र निकले । मुंशी सदासुखलाल के संपादन में आगरा से बुद्धि प्रकाश नामक यह पत्र पत्रकारिता के दृष्टि से ही नहीं वरन भाषा व शैली की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है । प्रख्यात समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उसकी भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा है – “बुद्धि प्रकाश की भाषा उस समय की भाषा को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी ।”
समाचार सुधावर्षण – अब धीरे-धीरे हिंदी पत्रों की संख्या बढ़ने लगी । लोगों की दृष्टि पत्रकारिता की ओर उन्मुख हुई । सन् 1854 में कलकत्ता से श्यामसुंदर सेन के संपादन में हिंदी के पहले दैनिक समाचार पत्र ‘समाचार सुधावर्षण’ का प्रकाशन हुआ । यह द्विभाषीय पत्र था, तथा हिंदी व बंगला में छपता था । अपनी निर्भीकता एवं प्रगतिशीलता के कारण उसे कई बार अंग्रेजी सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा । 1855 में ‘सर्वहितकारक’ (आगरा) और ‘प्रजा हितैषी’ का प्रकाशन हुआ । 1857 में एकमात्र पत्र निकला जिसका नाम ‘पयामे आजादी’ था ।
पयामे आजादी – दिल्ली से फरवरी 1857 में प्रकाशित पयामे आजादी का प्रकाशन प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अजीमुल्ला खां ने किया था । इसके प्रकाशक एवं मुद्रक नवाब बहादुर शाह जफर पौत्र केदार बख्त थे । यह पत्र पहले उर्दू में निकला, बाद में हिंदी में भी इसका प्रकाशन हुआ । इस पत्र में सरकार विरोधी सामग्री होती थी । इस पत्र ने दिल्ली की जनता में स्वतंत्रता प्रेम की आग फूंक दी । इसी पत्र में भारत का तत्कालीन राष्ट्रीय गीत छपा था, उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं –
“हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा ।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा ।।
आज शहीदों ने तुझको, अहले वतन ललकारा ।
तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा ।।”
1861 में हिंदी प्रदेश से चार पत्र निकले जिनमें ‘सूरज प्रकाश’ (आगरा), ‘जगलाभ चिंतक’ (अजमेर), ‘प्रजाहित’ (इटावा), ‘ज्ञानदीपक’ (सिकंदरा) शामिल थे । इसके पश्चात 1863 में ‘लोकमित्र’ (मासिक), ‘भारत खंडामृत’ (1864 – आगरा), ‘तत्वबोधिनी’ (1866 – बरेली), ‘ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका’ (1866 – लाहौर), आदि पत्र प्रकाशित हुए । अब तक हिंदी में छपने वाले पत्रों की संख्या पर्याप्त हो चली थी, पर पाठकाभाव, अर्थाभाव के चलते ये जल्द ही काल-कवलित हो जाते थे । 1867 में ‘कवि वचन सुधा’ का प्रकाशन एक क्रांतिकारी घटना थी । भारतेंदु हरीश चंद्र के संपादन में प्रकाशित इस पत्र ने हिंदी साहित्य व पत्रकारिता को नए आयाम दिए । डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – “कवि वचन सुधा क प्रकाशन कर भारतेंदु ने एक नए युग का सूत्रपात किया ।” 1867 में ‘कवि वचन सुधा’ के अलावा ‘वृतान्त विलास’ (जम्मू), ‘सर्वजनोपकारक’ (आगरा), रतन प्रकाश (रतलाम), विद्याविलास (जम्मू) का प्रकाशन हुआ ।
हिंदी पत्रकारिता का विकास काल (1867-1900)
1867 तक विदेशी शिक्षा के कारण परम्परावादी विचारधारा का लोप हो रहा था, अतः अनेक समाज सुधारकों ने अपनी संस्थाएं कायम की और इसी शिक्षित वर्ग ने पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान की । हिंदी पत्रकारिता का यह युग हिंदी गद्य-निर्माण का युग माना जाता है । इस युग के पत्रों में राजनीति, साहित्य, प्रहसन, व्यंग्य तथा ललित निबन्धों की संख्या अधिक रहती थी । इन पत्रों का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक, कलुष प्रक्षालन और जातीय उन्नयन था । इस युग का नेतृत्व बाबू हरिशचन्द्र कर रहे थे । यह समय अंग्रेज अधिकारियों की गुलामी का था, परन्तु भारतेंदु जी निडर भाव से राजनैतिक लेख लिखकर जनता-जनार्दन को झकझोर रहे थे । यही कारण है कि यह युग भारतेंदु युग के नाम से भी प्रसिद्ध है । इस युग में अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ ।
हरिश्चन्द्र मैगजीन – 15 अक्टूबर, 1873 को काशी से भारतेंदु हरिश चन्द्र ने ही ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ को जन्म दिया । यह मासिक पत्रिका थी । इसमें पुरातत्व, उपन्यास, कविता, आलोचना, ऐतिहासिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा दार्शनिक लेख, कहानियाँ एवं व्यंग्य आदि प्रकाशित होते थे । लेकिन जब इसमें देशभक्तिपूर्ण लेख निकलने लगे तो इसे बंद कर दिया गया । ‘बाला-बोधिनी पत्रिका’ 9 जनवरी, 1874 को भारतेंदु ने निकाली । यह पत्रिका महिलाओं की मासिक पत्रिका थी ।
हिंदी प्रदीप – 1 सितम्बर, 1877 को बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ नाम का मासिक पत्र निकाला । यह पत्र घोर संकट के बावजूद भी 35 वर्षों तक निकलता रहा । भारतेंदु जी ने इस पत्र का उद्घाटन किया । पत्रकारिता की दृष्टि से हींदी प्रदीप का जन्म हिंदी साहित्य के इतिहास में क्रांतिकारी घटना है । इसने हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा प्रदान की । इसका स्वर राष्ट्रीयता, निर्भीकता तथा तेजस्विता का था, अतः सरकार इर पर कड़ी नजर रखती थी । इसमे हिंदी साहित्य और पत्रकारिता पर सामग्री रहती थी ।
भारत मित्र - 17 मई, 1878 को कलकत्त से यह पत्र प्रकाशित हुआ । जिस समय यह पत्र प्रकाशित हुआ, उस समय वहां से हिंदी का कोई भी पत्र नहीं निकलता था । यह बड़ा प्रसिद्ध और कर्मशील पत्र था । भारत मित्र के कुशल संपादन के कारण इसकी गणना अच्छे पत्रों में होने लगी थी । भारत मित्र की सबसे पहले वैतनिक संपादक पंडित हरमुकुन्द शास्त्री लाहौर से बुलाए गए । इस पत्र की आयु काफी रही । यह पत्र 37 वर्षों तक चला ।
सार सुधानिधि – 13 अप्रैल, 1879 को प्रकाशित सार सुधानिधि पंडित सदानन्दजी के सम्पादन में निकला । इसके संयुक्त संपादक पंडित दुर्गाप्रसाद, सहायक संपादक गोविन्द नारायण और व्यवस्थापक शम्भूनाथ थे । इसकी भाषा संस्कृत मिश्रित थी, अतः कुछ कठिन होती थी, पर साफ थी । लेख अच्छे गंभीर होते थे । यह पत्र राजनीति ही नहीं, अन्य विषयों का भी आलोचक था । यह पत्र राजनीति ही नहीं, अन्य विषयों का भी आलोचक था ।
सज्जन कीर्ति सुधाकर – ज्यों से निकलने वाला पहला हिंदी पत्र था, क्योंकि राज्यों के सभी पत्र उर्दू व हिंदी में निकलते थे, जिनमें उर्दू का ही प्रथम स्थान होता था । मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह के नाम पर यह पत्र निकला था, यह पत्र 1879 में आगरा के पंडित बंशीधर वाजपेयी के सम्पादन में प्रकाशित हुआ ।
उचित वक्ता – पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र ने 7 अगस्त, 1880 को उचित वक्ता को जन्म दिया । मीठी-मीठी कटारी मारने, व्यंग्य, मुंह चिढ़ाने में उचित वक्ता पंच का काम करता था । यह पत्र 15 वर्षों तक प्रकाशित हुआ । इसने इल्बर्ट बिल, प्रेस कानून, वर्नाक्यूलर एक्ट का बड़ी निर्भीकता से विरोध किया ।
भारत जीवन – बाबू रामकृष्ण वर्मा ने काशी से 3 मार्च 1884 को भारत जीवन प्रकाशित किया । यह पहले चार पृष्ठ का था, बाद में 8 पृष्ठों में छपने लगा । इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया था । यह पत्र 30 वर्षों तक प्रकाशित हुआ । भारत जीवन सदा एक दब्बू अखबार रहा । स्वाधीनता पूर्व साहस से इसने कभी नहीं लिखा ।
हिन्दोस्थान – 1885 में राजा रामपाल सिंह लन्दन से इसे कालाकांकर (प्रतापगढ़) ले आए और यहां इसके हिंदी, अंग्रेज संस्करण प्रकाशित होने लगे । यह उत्तर प्रदेश से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के संपादन में निकला । यह हिंदी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाला प्रथम संपूर्ण हिंदी दैनिक पत्र था । इसके सहयोगी नवरतन प्रसिद्ध थे ।
शुभचिन्तक – 1887 में जबलपुर से पंडित रामगुलाम अवस्थी के समपादन में शुभ-चिन्तक पत्र निकला । यह पत्र साप्ताहिक था । बाद में इसके संपादक हितकारिणी स्कूल के हैटमास्टर रायसाहब रघुवरप्रसाद द्विवेदी हो गए ।
हिंदी बंगवासी – हिंदी बंगवासी 1890 में कलकत्ता से पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती के सम्पादन में निकला । यह एकदम नए ढंग का अखबार था । इस पत्र का अपना ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि सभी श्रेष्ठ पत्रकारों ने इसका सम्पादन कार्य किया था । जिनमें सर्वश्री बालमुकुन्द गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, लक्ष्मीनारायण गर्दे आदि प्रमुख थे । यह पत्र दीर्घजीवी रहा । इस प्रकार यह पत्र हिंदी के वरिष्ठ पत्रकारों का प्राथमिक विद्यालय सिद्ध हुआ ।
साहित्य सुधानिधि – हिंदी बंगवासी के बाद मुजफ्फरपुर से जनवरी 1893 को बाबू देवकीनन्दन खत्री ने साहित्य सुधानिधि का प्रकाशन किया । इसके सम्पादक मण्डल में बड़े-बड़े साहित्यकार – बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर, बाबू राधाराम, राय कृष्णदास, बाबू कीर्तिप्रसाद धे ।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका – यह पत्रिका 1896 में नागरी प्रचारिणी सभा ने त्रैमासिक रूप में प्रकाशित की थी । इसके सम्पाक बाबू श्यामसुन्दर दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, कालीदास और राधाकृष्ण दास थे । 1907 में यह मासिक पत्रिका हो गई और इसके सम्पादक श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र शर्मा और वेणीप्रसाद बनाए गए ।
हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)
सरस्वती – सन 1900 का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण है । 1900 में प्रकाशित सरस्वती पत्रिका अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिका रही है । वह अपनी छपाई, सफाई, कागज और चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई । इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था । इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदास थे । 1903 में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा । इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था । इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ । इस समय जो भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओं से टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई ।
हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)
अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आजादी के बाद आया । 1947 में देश को आजादी मिली । लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ । औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई । जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ । रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी ।
आजादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार का माध्यम बनती जा रही है । परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई ।
यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसके उत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं । पत्रकारिता एक निष्ठापूर्ण कर्म है और पत्रकार एक दायित्वशील व्यक्ति होता है । अतः यदि हमें स्वच्छ पत्रकारिता को विकसित करना है तो पत्रकारिता के क्षेत्र में हुई अनधिकृत घुसपैठ को समाप्त करना होगा, उसे जीवन मूल्यों से जोड़ना होगा, उसे आचरणिक कर्मों का प्रतीक बनाना होगा और प्रचारवादी मूल्यों को पीछे धकेल कर पत्रकारिता को जीवन, समाज, संस्कृति और कला का स्वच्छ दर्पण बनाना होगा, पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों को अतीत से शिक्षा लेकर वर्तमान को समेटते हुए भविष्य का दिशानिर्देशन भी करना चाहिए ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के आसपास यानी दो-चार वर्ष आगे-पीछे कई दैनिक, साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ । जिसमें कुच तो निरंतर प्रगति कर रही हैं तथा कुछ बंद हो गई हैं ।
प्रमुख पत्रों में नवभारत टाइम्स (1947), हिन्दुस्तान (1936), नवभारत (1938), नई दुनिया (1947), आर्यावर्त (1941), आज (1920), इंदौर समाचार (1946), जागरण (1947), स्वतंत्र भारत (1947), युगधर्म (1951), सन्मार्ग (1951), वीर-अर्जुन (1954), पंजाब केसरी (1964), दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका (1956), अमर उजाल (1948), दैनिक भास्कर (1958), तरूण भारत (1974), नवजीवन (1974), स्वदेश (1966), देशबंधु (1956), जनसत्ता 1903), रांची एक्सप्रेस, प्रभात खबर आदि शामिल हैं ।इसमें तरूण भारत और युगधर्म का प्रकाशन बंद हो चुका है । शेष निरन्तर प्रगति कर रहे हैं । साप्ताहिक पत्रों में ब्लिट्ज (1962), पाञ्चजन्य (1947), करंट, चौथी दुनिया (1986), संडे मेल (1987), संडे आब्जर्वर (1947), दिनमान टाइम्स (1990) प्रमुख रहे । इनमें से पाञ्चजन्य के अलावा सभी बंद हो चुके हैं । प्रमुख पत्रिकाओं में धर्मयुग (1950), साप्ताहिक हिन्दुस्तान (1950), दिनमान (1964), रविवार (1977), अवकाश 1982), खेल भारती (1982), कल्याण (1926), माधुरी (1964), पराग (1960), कादम्बिनी (1960), नन्दन (1964), सारिका (1970), चन्दामा (1949), नवनीत (1952), सरिता (1964), मनोहर कहानियां (1939), मनोरमा (1924), गृहशोभा, वामा, गंगा (1985), इंडिया टुडे (1986), माया हैं । इनमें से दिनमान, रविवार, अवकाश, पराग, गंगा, माधुरी अब बंद हो चुकी हैं । इनमें से दिनमान ने नई प्रवृत्तियां प्रारंभ की थी । अतिथि सम्पादक की परम्परा प्रारम्भ की, जिसमें कई राजनेता, साहित्यकार व कलाप्रेमी अतिथि सम्पादक बने । वहीं रविवार खोजपूर्ण रिपोर्टिंग के लिए विख्यात रहा है ।
Monday, 5 September 2011
समान शिक्षा के पाठ पर सामंती पंजा
सामान्य जन जानता है कि सत्तासीन तथा साधन सम्पन्न और अधिकतम प्राप्त परिवारों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है- देश में भी और विदेश में भी। लगभग 20-25 प्रतिशत बच्चे इस श्रेणी में आ जाते हैं। इस वर्ग के लिए शिक्षा के मूल अधिकार अधिनियम जैसे प्रावधानों से कुछ लेना-देना नहीं है। बाकी लगभग 75 प्रतिशत बच्चों की निर्भरता केवल सरकारी स्कूलों पर है। मेरे गांव में एक अनपढ़ किंतु अनुभवी व्यक्ति ने बड़े पते की बात कही, सरकारी स्कूल वे हैं जहां सरकार के बच्चे नहीं पढ़ते हैं। आज पब्लिक स्कूल चिंतित हैं कि उन्हें 25 प्रतिशत स्थान उन बच्चों को देने को कहा जा रहा है जो ‘कमजोर वर्ग’ से हैं। उनके प्रबंधक अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ अदालत पहुंच गए हैं। शिक्षा में समानता का प्रश्न जो कई दशक पहले प्रमुखता से उभरना चाहिए था, शायद उचित अवसर की तलाश में रहा है। क्या शिक्षा के नीति निर्धारकों ने व्यवस्था द्वारा शिक्षा के दो हिस्सों में लगातार बंटने तथा बीच की खाई के बढ़ने को देखा नहीं या देखकर भी नजरअंदाज कर दिया? क्या इस विश्लेषण में सार्थकता नहीं है कि जानबूझ कर इस खाई को बढ़ाया गया है। लगभग बीस वर्ष पहले मध्य प्रदेश के कुछ गांवों में जाने पर पता चला कि ऊंचे लोग बाकी लोगों के बच्चों को स्कूल नहीं जाने देते हैं। आखिर उनके खेतों-खलिहानों में कौन काम करेगा? आज दिल्ली जैसे शहरों में सरकार की पूरी सहमति तथा प्रोत्साहन से ‘पब्लिक स्कूल’
खुलते जा रहे हैं। जो जम चुके हैं, वे वातानुकूलित पांच सितारा संस्कृति में पदार्पण कर चुके हैं। ऐसे में यह वर्ग भला यह कैसे बर्दाश्त करेगा कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले उसके ‘सेवकों’ के बच्चे उनके बच्चों के साथ बैठें? सामंती प्रवृत्ति मिटती नहीं है, केवल उनका स्वरूप बदल जाता है। सरकार तथा विशेषकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा उसके फॉरेन-एजुकेटेड मंत्री महोदय ने मई 2009 के बाद सुधारों की घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। कितना प्रचार-प्रसार किया गया था, शिक्षा के मूल अधिकार विधेयक को एक अप्रैल 2010 से लागू करने की ‘क्रांतिकारी’ सफलता को लेकर। आज देश में कहीं पर भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि इस अधिनियम के लागू करने में कोई व्यावहारिक सफलता मिली हो या लोगों के अंदर विास पैदा हुआ हो। सरकारी तंत्र अवश्य कुछ आंकड़े प्रस्तुत कर देगा। सरकारी तंत्र में आंकड़ों में असफलता को छिपाना अच्छी तरह सीख लिया जाता है। बड़े शहर में हर ‘पॉश’ इलाकों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों, फल-सब्जी बेचने वालों, घरों में काम कर परिवार का पोषण करने वालों के बच्चे भी होते हैं। क्या इन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे ऐसे स्कूलों में पढ़ें जहां आवश्यक संसाधन तथा पूरे अध्यापक हो? यह बच्चे तथा उनके परिवार
के लोग, प्रतिदिन देखते हैं कि कुछ उन्हीं की उम्र के बच्चे कितने ‘बड़े’ स्कूलों में चमकती बसों में सुंदर पोशाक पहन कर जाते हैं। यह बच्चे घर पर भले न पूछें अपने से तो अवश्य पूछते होंगे कि मेरा स्कूल ऐसा क्यों नहीं है? यह प्रश्न जीवन भर उनके मन में बना रहेगा तथा उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव किसी के लिए भी हितकर नहीं होंगे। ठेठ दिल्ली में साठ स्कूल तम्बुओं में चलते हैं। कई राज्य जब यह घोषणा करते हैं कि वे अस्सी हजार-एक लाख अध्यापक स्कूलों में नियुक्त करने जा रहे हैं तब उन्हें सराहना मिलती है। होना इसका उल्टा चाहिए। आपने अनेक वर्ष अध्यापकों के पद खाली क्यों रखे? हजारों लाखों बच्चे उनकी इस अकर्मण्यता के कारण शिक्षा में अरुचि के शिकार बने होंगें क्योंकि अध्यापक ही नहीं थे, या कहीं कोई एक शिक्षा कर्मी 150-200 बच्चों का स्कूल अकेले चला रहा था। शिक्षा के अधिकार अधिनियम में मूल तत्व तो यही था कि 6 से 14 वषर् तक के सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता तथा उचित कौशलयुक्त शिक्षा दी जाएगी। मुश्किल यह है कि क्रियान्वयन जिन्हें करना है वह तो निश्ंिचत हैं- उनके बच्चे या तो पब्लिक स्कूलों में हैं या विशिष्टों के लिए बनी सरकारी व्यवस्था जैसे केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल इत्यादि का लाभ उठा रहे हैं। यह कड़वा सच है मगर अब सामान्य जन इसे अन्याय मान रहा है। अभी तो वह स्थानीय स्तर पर विकल्प ढूंढ़ता है। हर औसत गांव में आज प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं। अनेक राज्यों में सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं। नेता और बाबू प्रसन्न हैं कि बचत हो रही है। यह प्रक्रिया क्या-क्या गुल खिला सकती है, उसे वह जानना ही नहीं चाहते हैं। शिक्षा द्वारा असमानता को बनाए रखने तथा उसे बढ़ाने वाले विष वृक्ष की शाखाएं कैंसर की तरह हर तरफ फैल गई हैं। अध्यापक प्रशिक्षण इसका एक बड़ा उदाहरण है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद-एनसीटीई- भ्रष्टाचार के दलदल में ऐसी फंसी कि उसके द्वारा स्वीकृत शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं का सैलाब आ गया। राज्य सरकारें फीस निर्धारित करती है। कॉलेज मनमानी करते हैं। ठेठ गांव से आया विद्यार्थी अध्यापक बनने के लिए इस दलदल से गुजरता है कि उसका सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है। घोर असंतोष तथा शोषण की पीड़ा से गुजर कर जब वह अध्यापक बनेगा तब वह कैसा होगा और हालात क्या होंगे? देश को सात लाख डॉक्टर चाहिए लेकिन प्रतिवषर् केवल पैंतीस हजार ही तैयार होते हैं। यहां जो डोनेशन इत्यादि देना पड़ता है; वह कम से कम 80 प्रतिशत लोगों की कल्पना से भी परे है। भारत के विकास को खरबपतियों की बढ़ती संख्या से प्रसन्न होने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसे कितने लाखों के अधिकार छीनकर तथा प्रकृति का निर्लज्ज दोहन करके होता है। पर लोग उनके इस गोरखधंधे को समझ रहे हैं। वे अधिक दिन चुप नहीं रहेंगे। वे शिक्षा का महत्त्व जानते हैं तथा उससे उन्हें वंचित करने वालों को पहचानते हैं। जिस देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाद समान स्कूल व्यवस्था, पड़ोस का स्कूल जैसी व्यवस्था हर तरफ उत्साह पैदा कर सकती थी, वहां शिक्षा माफिया, नियामक संस्थाओं में भ्रष्टाचार पर ही चर्चा सीमित हो जाती है। केंद्र सरकार नौकरशाहों के वरिष्ठ वर्ग के लिए संस्कृति स्कूलों के खुलने को अनुदान देती है, उसे बढ़ावा देती है। संवेदनहीनता कहां तक फैली है; इसका परिदृश्य अब पूरी तरह उजागर हो रहा है। यह देश हित में होगा कि शिक्षा में बराबरी हर बच्चे को मिले। हर परिवार का मौलिक अधिकार है कि उसके बच्चे वैसी ही शिक्षा व्यवस्था का लाभ उठा सके, जो किसी धनकुबेर या सत्ताशाह के बच्चों को उपलब्ध होती है। समय भले ही लगे मगर यह होगा अवश्य। तब केवल आंदोलन ही नहीं क्रांति अपना वांछित साकार रूप लेगी।
असमानता बढ़ाने वाली खामियां
आरटीई की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें 0 से 6 और 14 से 18 वषर् की अवस्था के बीच के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 45 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के 10 साल के भीतर सरकार 0 से 14 वषर् आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देनी होगी। यद्यपि ऐसा संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी नहीं हो पाया। फिर भी 14 से 18 वषर् आयु वर्ग के बच्चों की बात आरटीई में न होना आश्चर्यजनक है। देश के शहरों में बड़ी तादाद में खुले प्रीपेटरी और नर्सरी स्कूलों की प्राथमिक कक्षा में प्रवेश के लिए प्राय: 3 से 5 वर्ष की आयु का प्रावधान है। इसके मद्देनजर आरटीई समाज में शैक्षणिक स्तर पर भेदभावपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देता लगता है।
खुलते जा रहे हैं। जो जम चुके हैं, वे वातानुकूलित पांच सितारा संस्कृति में पदार्पण कर चुके हैं। ऐसे में यह वर्ग भला यह कैसे बर्दाश्त करेगा कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले उसके ‘सेवकों’ के बच्चे उनके बच्चों के साथ बैठें? सामंती प्रवृत्ति मिटती नहीं है, केवल उनका स्वरूप बदल जाता है। सरकार तथा विशेषकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा उसके फॉरेन-एजुकेटेड मंत्री महोदय ने मई 2009 के बाद सुधारों की घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। कितना प्रचार-प्रसार किया गया था, शिक्षा के मूल अधिकार विधेयक को एक अप्रैल 2010 से लागू करने की ‘क्रांतिकारी’ सफलता को लेकर। आज देश में कहीं पर भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि इस अधिनियम के लागू करने में कोई व्यावहारिक सफलता मिली हो या लोगों के अंदर विास पैदा हुआ हो। सरकारी तंत्र अवश्य कुछ आंकड़े प्रस्तुत कर देगा। सरकारी तंत्र में आंकड़ों में असफलता को छिपाना अच्छी तरह सीख लिया जाता है। बड़े शहर में हर ‘पॉश’ इलाकों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों, फल-सब्जी बेचने वालों, घरों में काम कर परिवार का पोषण करने वालों के बच्चे भी होते हैं। क्या इन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे ऐसे स्कूलों में पढ़ें जहां आवश्यक संसाधन तथा पूरे अध्यापक हो? यह बच्चे तथा उनके परिवार
के लोग, प्रतिदिन देखते हैं कि कुछ उन्हीं की उम्र के बच्चे कितने ‘बड़े’ स्कूलों में चमकती बसों में सुंदर पोशाक पहन कर जाते हैं। यह बच्चे घर पर भले न पूछें अपने से तो अवश्य पूछते होंगे कि मेरा स्कूल ऐसा क्यों नहीं है? यह प्रश्न जीवन भर उनके मन में बना रहेगा तथा उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव किसी के लिए भी हितकर नहीं होंगे। ठेठ दिल्ली में साठ स्कूल तम्बुओं में चलते हैं। कई राज्य जब यह घोषणा करते हैं कि वे अस्सी हजार-एक लाख अध्यापक स्कूलों में नियुक्त करने जा रहे हैं तब उन्हें सराहना मिलती है। होना इसका उल्टा चाहिए। आपने अनेक वर्ष अध्यापकों के पद खाली क्यों रखे? हजारों लाखों बच्चे उनकी इस अकर्मण्यता के कारण शिक्षा में अरुचि के शिकार बने होंगें क्योंकि अध्यापक ही नहीं थे, या कहीं कोई एक शिक्षा कर्मी 150-200 बच्चों का स्कूल अकेले चला रहा था। शिक्षा के अधिकार अधिनियम में मूल तत्व तो यही था कि 6 से 14 वषर् तक के सभी बच्चों को अच्छी गुणवत्ता तथा उचित कौशलयुक्त शिक्षा दी जाएगी। मुश्किल यह है कि क्रियान्वयन जिन्हें करना है वह तो निश्ंिचत हैं- उनके बच्चे या तो पब्लिक स्कूलों में हैं या विशिष्टों के लिए बनी सरकारी व्यवस्था जैसे केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल इत्यादि का लाभ उठा रहे हैं। यह कड़वा सच है मगर अब सामान्य जन इसे अन्याय मान रहा है। अभी तो वह स्थानीय स्तर पर विकल्प ढूंढ़ता है। हर औसत गांव में आज प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं। अनेक राज्यों में सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं। नेता और बाबू प्रसन्न हैं कि बचत हो रही है। यह प्रक्रिया क्या-क्या गुल खिला सकती है, उसे वह जानना ही नहीं चाहते हैं। शिक्षा द्वारा असमानता को बनाए रखने तथा उसे बढ़ाने वाले विष वृक्ष की शाखाएं कैंसर की तरह हर तरफ फैल गई हैं। अध्यापक प्रशिक्षण इसका एक बड़ा उदाहरण है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद-एनसीटीई- भ्रष्टाचार के दलदल में ऐसी फंसी कि उसके द्वारा स्वीकृत शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं का सैलाब आ गया। राज्य सरकारें फीस निर्धारित करती है। कॉलेज मनमानी करते हैं। ठेठ गांव से आया विद्यार्थी अध्यापक बनने के लिए इस दलदल से गुजरता है कि उसका सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है। घोर असंतोष तथा शोषण की पीड़ा से गुजर कर जब वह अध्यापक बनेगा तब वह कैसा होगा और हालात क्या होंगे? देश को सात लाख डॉक्टर चाहिए लेकिन प्रतिवषर् केवल पैंतीस हजार ही तैयार होते हैं। यहां जो डोनेशन इत्यादि देना पड़ता है; वह कम से कम 80 प्रतिशत लोगों की कल्पना से भी परे है। भारत के विकास को खरबपतियों की बढ़ती संख्या से प्रसन्न होने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसे कितने लाखों के अधिकार छीनकर तथा प्रकृति का निर्लज्ज दोहन करके होता है। पर लोग उनके इस गोरखधंधे को समझ रहे हैं। वे अधिक दिन चुप नहीं रहेंगे। वे शिक्षा का महत्त्व जानते हैं तथा उससे उन्हें वंचित करने वालों को पहचानते हैं। जिस देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाद समान स्कूल व्यवस्था, पड़ोस का स्कूल जैसी व्यवस्था हर तरफ उत्साह पैदा कर सकती थी, वहां शिक्षा माफिया, नियामक संस्थाओं में भ्रष्टाचार पर ही चर्चा सीमित हो जाती है। केंद्र सरकार नौकरशाहों के वरिष्ठ वर्ग के लिए संस्कृति स्कूलों के खुलने को अनुदान देती है, उसे बढ़ावा देती है। संवेदनहीनता कहां तक फैली है; इसका परिदृश्य अब पूरी तरह उजागर हो रहा है। यह देश हित में होगा कि शिक्षा में बराबरी हर बच्चे को मिले। हर परिवार का मौलिक अधिकार है कि उसके बच्चे वैसी ही शिक्षा व्यवस्था का लाभ उठा सके, जो किसी धनकुबेर या सत्ताशाह के बच्चों को उपलब्ध होती है। समय भले ही लगे मगर यह होगा अवश्य। तब केवल आंदोलन ही नहीं क्रांति अपना वांछित साकार रूप लेगी।
असमानता बढ़ाने वाली खामियां
आरटीई की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें 0 से 6 और 14 से 18 वषर् की अवस्था के बीच के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 45 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के 10 साल के भीतर सरकार 0 से 14 वषर् आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देनी होगी। यद्यपि ऐसा संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी नहीं हो पाया। फिर भी 14 से 18 वषर् आयु वर्ग के बच्चों की बात आरटीई में न होना आश्चर्यजनक है। देश के शहरों में बड़ी तादाद में खुले प्रीपेटरी और नर्सरी स्कूलों की प्राथमिक कक्षा में प्रवेश के लिए प्राय: 3 से 5 वर्ष की आयु का प्रावधान है। इसके मद्देनजर आरटीई समाज में शैक्षणिक स्तर पर भेदभावपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देता लगता है।
Saturday, 27 August 2011
ये तो प्रेम की बात है ऊद्धव, बंदगी तेरे बस की नहीं है ! यहां सर दे के होते हैं सौदे, आशिकी इतनी सस्ती नहीं है !!
प्रिंस कुमार
۩۞۩๑•**•๑۩۞۩๑•**•๑۩۞۩๑•**•๑ये तो प्रेम की बात है ऊद्धव, बंदगी तेरे बस की नहीं है !
यहां सर दे के होते हैं सौदे, आशिकी इतनी सस्ती नहीं है !!
*•๑۩۞۩๑•**•๑۩۞۩๑•**•๑۩۞۩๑•**•๑۩۞۩๑•**•
दो
इससेदुनिया के तमाम खूबसूरत रिश्तों में से एक रिश्ता दोस्ती का है।
दोस्त स्ट्रीटलाइट की तरह होते हैं, वे हमारे जीवन की राह में रोशनी भर
देते हैं। हमारा सफर सहज हो जाता है।
एक सही और अच्छा दोस्त हमारी जिंदगी बदलने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाता है।
जरूरी नहीं कि आपके दोस्त अपने सामाजिक दायरे से ही हों। कई बार भगवान उन्हें अलग-अलग रूपों में भेजता है
पशु-पक्षी भी आपके दोस्त हो सकते हैं या कई बार अचानक ऎसे व्यक्ति मिल जाते हैं जो खुद भी एक ईमानदार दोस्त की तलाश में होते हैं।
जिंदगी में खुश रहने के लिए सिर्फ रूपयों का ढेर, बडे महल, महंगी गाडियां, ऊंचा पद ही खुश रहने के लिए काफी नहीं है। ये सब चिजें कुछ पल का सुख देती हैं। लेकिन दोस्त हमेशा हमारी खुशी को बनाए रखने का काम करता है।
दोस्त हमें जीवन में कुछ अच्छा देते हैं। जीवन की बैटरी को चार्ज करने के लिए दोस्ती की जरूरत होती है।
एक अच्छा और सच्चा दोस्त वह होता हे जो आपकी राहों में आई मुश्किलों का हल निकालते हैं।
एक सच्चा दोस्त वह है जो आपके दिल की बात को समझ पाए ओर आपका संबल बढाकर आपको सही रास्ता दिखाए।
अच्छे दोस्त को कैसे ढूंढा जाए या कैसे पहचाना जाए। दोस्ती की कोई सीमा या मापदंड नहीं होता।
अच्छा दोस्त पाने के लिए आप अपने मिलने-जुलने वालों में से उन पर गौर करें, जिनसे आप सहज रूप से बात कर पाते हों।
जिनकी बातों पर आपको हंसी आती हो या आपके परेशान होने पर उनका भी मन उदास हो जाता हो।
जरूरी नहीं कि आपका दोस्त आपका हमउम्र हो या आपके स्टेटस का हो या आप दोनों का धर्म या भाषा एक हो।
दोस्ती कभी भी किसी से भी हो सकती है। ऑफिस में आपकी सीट के पास बैठने वाला सहकर्मी भी आपका दोस्त हो सकता है।
वॉक पर रोजाना मिलने वाले दादाजी या कोई बुजुर्ग, नियमित रूप से आपका चैकअप करने वाला आपका डॉक्टर या पडौस में रहने वाली बुजुर्ग आंटी कोई भी आपका दोस्त हो सकता है। लेकिन इस दोस्ती को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए आपसी प्रेम और विश्वास होना बहुत जरूरी है।
अच्छे दोस्त आपके जीवन को सार्थक बनाते हैं। सकारात्मक ऊर्जा के साथ वे आपको जीवन जीने का हौंसला देते हैं।
जब जिंदगी के रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई उम्मीद नहीं बचती तब अच्छे दोस्त ही जीने का सहारा बनते हैं।
अच्छे दोस्त हमें बुरे पलों से उबारते हैं। दोस्ती खुशी को दोगुना करके, दुख को बांटकर उल्लास बढाती है और मुसीबत कम करती है। ए
Friday, 26 August 2011
बड़ी जिद्दी लड़ाई
सरकारें क्या ऐसे मान जाती हैं? किस राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में आपने भ्रष्टाचार मिटाने की रणनीति पढ़ी है? कब कहां किस सरकार ने अपनी तरफ से पारदर्शिता की ठोस पहल की है? पारदर्शिता जब राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है, फिर यह आ बैल मुझे मार कौन करेगा? लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से जंग सर को पटक कर पत्थर तोड़ने की कोशिश जैसी है, क्योंकि यहां चुनी हुई सरकारें ही पारदर्शिता रोकती हैं और सत्ता पर निगाह जमाए विपक्ष सिर्फ पहलू बदलता है। मगर लोकतंत्र ही इस लड़ाई के सबसे मुफीद माहौल भी देता है। दुनिया गवाह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हमेशा स्वयंसेवी संगठनों व जनता ने ही शुरू की है। विश्व बैंक, ओईसीडी जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी संस्थाओं ने जब इस लड़ाई का परचम संभाला है, तब जाकर सरकारें कुछ दबाव में आई हैं। हमें किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए। हम बड़ी ही जिद्दी किस्म की लड़ाई में कूद पडे़ हैं।
कठिन मोर्चा नए सिपाही
भ्रष्टाचार से अंतरराष्ट्रीय जंग केवल बीस साल पुरानी है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक उदारीकरण और पूर्व-पश्चिम यूरोप के एकीकरण की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवी संगठनों ने 1990 की शुरुआत में यह झंडा उठाया था। मुहिम स्थापित राजनीतिक मंचों के बाहर से शुरू हुई थी। 2001 में पोर्तो अलेग्री में वर्ल्ड सोशल फोरम के मंच पर जुटे दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन अगले एक दशक में पारदर्शिता के सबसे बड़े पहरुए बन गए। भारतीय सिपाही भी इसी जमात के हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार को लेकर विश्व बैंक की उपेक्षा पर गुस्से से उपजा था। जो अब भ्रष्ट देशों की अपनी सूची, रिश्वतखोरी सूचकांक और नीतियों की समीक्षा के जरिये सरकारों को दबाव में रखता है। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ प्रॉसीक्यूटर्स और इंटरनेशनल चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ने मुहिम को तेज किया। तब जाकर 1997 में विश्व बैंक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की कमान संभाली, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि (2003) लागू की और यूएन एंटी करप्शन कांपैक्ट बनाया, जिससे तहत सैकड़ा से अधिक एनजीओ दुनिया भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस सवयंसेवी संगठन समूह) ने नाइजीरिया और अंगोला के भ्रष्ट शासकों की लूट को वापस उनके देशों तक पहुंचाकर इस लड़ाई को दूसरा ही अर्थ दे दिया। ठीक ऐसी ही लड़ाई अफ्रीकी एनजीओ शेरपा ने लड़ी थी और कांगों, सिएरा लियोन, गैबन (अफ्रीकी देशों) की लूट को फ्रांस के बैंकों से निकलवाया था। दुनिया में हर जनांदोलन का पट्टा राजनीति के नाम नहीं लिखा है। राजनीति इस लड़ाई को कैसी लड़ेगी, वह तो इसी व्यवस्था को पोसती है।
ताकत के पुराने तरीके
पारदर्शिता की कोशिशों पर सरकारों की चिढ़ नई नहीं है। यह नेताओं व अफसरों के उस खास दर्जे और विशेषाधिकारों को निगल लेती है, जिसके सहारे भ्रष्टाचार पनपता है। इसलिए दुनिया के प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी इस तरह की कोशिशों के खिलाफ राजनीति हमेशा से आक्रामक रही है। दक्षिण अफ्रीका में चर्चित स्कोर्पियन कमीशन को दो साल पहले खत्म कर दिया गया। कई बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करने वाले इस कमीशन की जांच के दायरे में वर्तमान राष्ट्रपति जैकब जुमा भी आए थे। यह काम जुमा के राष्ट्रपति बनने से एक साल पहले हुआ और वह भी संसद के वोट से। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी खर्च घटाने के लिए एंटी करप्शन कमीशन को खत्म करने की पेशकश कर चुके हैं। यहां तक कि ब्रिटेन की सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ लेकर ब्रिटिश रक्षा कंपनी बीएई की जांच रोक दी। सऊदी अरब के अधिकारियों को बीएई से मिली रिश्वत कॉरपोरेट घूसखोरी का सबसे चर्चित प्रसंग है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में राजनीति पर भरोसा नहीं जमता। सरकारों ने जबर्दस्त दबाव के बाद ही भ्रष्टाचार की जांच के लिए व्यवस्थाएं की हैं। जैसे जिम्बाब्वे के विवादित राष्ट्र्पति रॉबर्ट मुगाबे ने हाल में भ्रष्टाचार निरोधक समिति बनाई है। जिन देशों में एंटी करप्शन कमीशन काम कर भी रहे हैं, वहां भी जनदबाव और स्वयंसेवी संगठनों की मॉनीटरिंग ही उन्हें स्वतंत्र व ताकतवर बनाती है। सरकारें तो उन्हें चलने भी न दें।
आगे और लड़ाई है
हम अभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ककहरा ही पढ़ रहे है और हजार आफत हैं। भ्रष्टाचार में देने वाले हाथों को बांधना भी जरूरी होता है। विकासशील देशों में कंपनियां 20 से 40 अरब डॉलर की रिश्वतें हर साल देती हैं, जो नेताओं व अधिकारियों की जेब में जाती हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया की निजी कंपनियों के 2700 अधिकारियों के बीच एक सर्वे में पाया था कि भारत, पाकिस्तान, इजिप्ट, नाइजीरिया में करीब 60 फीसदी कंपनियों को रिश्वत देनी होती है। बहुरराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 10 से 25 फीसदी तक बढ़ा देता है। इथिस्फियर संगठन, दुनिया में सबसे साफ सुथरी कंपनियों की पड़ताल करता है, इसकी सूची में एक भी भारतीय कंपनी नहीं है। यहां तक दुनिया के तमाम नामचीन ब्रांडों व कंपनियों को कारोबारी पारदर्शिता की रेटिंग में जगह नहीं मिली है। इथिस्फियर ने निष्कर्ष दिया था कि पारदर्शी कंपनियों ने 2007 से 2011 के बीच शेयर बाजार में अन्य कंपनियों के मुकाबले ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया। यानी बाजार पारदर्शिता की कद्र करता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इस दिशा में बढ़ेगी तो पेचीदगी और चुनौतियां नए किस्म की होंगी। यूरोप व अमेरिका इन देने वाले हाथों की मुश्कें भी कसने लगे हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है, क्योंकि इसमें अपनी व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं। सरकारें विशाल मशीन हैं, जिन्हें राजनीति चलाती है। लोकतंत्रों में पांच साल के लिए मिला जनसमर्थन अक्सर संविधान के मनमाने इस्तेमाल की गारंटी बन जाता है। पारदर्शिता को रोकने के लिए सरकारों ने अपनी इस संवैधानिक ताकत का अक्सर बेजा इस्तेमाल किया है। फिर भी दुनिया भ्रष्टाचार से लड़ रही है, क्योंकि भ्रष्टाचार सबसे संगठित किस्म का मानवाधिकार उल्लंघन है। यह वित्तीय पारदर्शिता को समाप्त करता है और विकास को रोकता है। दुनिया के बहुतेरे देश हमारे साहस पर रश्क कर रहे हैं। हमें फº होना चाहिए कि हम दुनिया में बहुतों से पहले जग गए हैं। और जब जग गए तो हैं तो अब सोने की कोई वजह नहीं है।
कठिन मोर्चा नए सिपाही
भ्रष्टाचार से अंतरराष्ट्रीय जंग केवल बीस साल पुरानी है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक उदारीकरण और पूर्व-पश्चिम यूरोप के एकीकरण की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवी संगठनों ने 1990 की शुरुआत में यह झंडा उठाया था। मुहिम स्थापित राजनीतिक मंचों के बाहर से शुरू हुई थी। 2001 में पोर्तो अलेग्री में वर्ल्ड सोशल फोरम के मंच पर जुटे दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन अगले एक दशक में पारदर्शिता के सबसे बड़े पहरुए बन गए। भारतीय सिपाही भी इसी जमात के हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार को लेकर विश्व बैंक की उपेक्षा पर गुस्से से उपजा था। जो अब भ्रष्ट देशों की अपनी सूची, रिश्वतखोरी सूचकांक और नीतियों की समीक्षा के जरिये सरकारों को दबाव में रखता है। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ प्रॉसीक्यूटर्स और इंटरनेशनल चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ने मुहिम को तेज किया। तब जाकर 1997 में विश्व बैंक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की कमान संभाली, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि (2003) लागू की और यूएन एंटी करप्शन कांपैक्ट बनाया, जिससे तहत सैकड़ा से अधिक एनजीओ दुनिया भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस सवयंसेवी संगठन समूह) ने नाइजीरिया और अंगोला के भ्रष्ट शासकों की लूट को वापस उनके देशों तक पहुंचाकर इस लड़ाई को दूसरा ही अर्थ दे दिया। ठीक ऐसी ही लड़ाई अफ्रीकी एनजीओ शेरपा ने लड़ी थी और कांगों, सिएरा लियोन, गैबन (अफ्रीकी देशों) की लूट को फ्रांस के बैंकों से निकलवाया था। दुनिया में हर जनांदोलन का पट्टा राजनीति के नाम नहीं लिखा है। राजनीति इस लड़ाई को कैसी लड़ेगी, वह तो इसी व्यवस्था को पोसती है।
ताकत के पुराने तरीके
पारदर्शिता की कोशिशों पर सरकारों की चिढ़ नई नहीं है। यह नेताओं व अफसरों के उस खास दर्जे और विशेषाधिकारों को निगल लेती है, जिसके सहारे भ्रष्टाचार पनपता है। इसलिए दुनिया के प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी इस तरह की कोशिशों के खिलाफ राजनीति हमेशा से आक्रामक रही है। दक्षिण अफ्रीका में चर्चित स्कोर्पियन कमीशन को दो साल पहले खत्म कर दिया गया। कई बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करने वाले इस कमीशन की जांच के दायरे में वर्तमान राष्ट्रपति जैकब जुमा भी आए थे। यह काम जुमा के राष्ट्रपति बनने से एक साल पहले हुआ और वह भी संसद के वोट से। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी खर्च घटाने के लिए एंटी करप्शन कमीशन को खत्म करने की पेशकश कर चुके हैं। यहां तक कि ब्रिटेन की सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ लेकर ब्रिटिश रक्षा कंपनी बीएई की जांच रोक दी। सऊदी अरब के अधिकारियों को बीएई से मिली रिश्वत कॉरपोरेट घूसखोरी का सबसे चर्चित प्रसंग है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में राजनीति पर भरोसा नहीं जमता। सरकारों ने जबर्दस्त दबाव के बाद ही भ्रष्टाचार की जांच के लिए व्यवस्थाएं की हैं। जैसे जिम्बाब्वे के विवादित राष्ट्र्पति रॉबर्ट मुगाबे ने हाल में भ्रष्टाचार निरोधक समिति बनाई है। जिन देशों में एंटी करप्शन कमीशन काम कर भी रहे हैं, वहां भी जनदबाव और स्वयंसेवी संगठनों की मॉनीटरिंग ही उन्हें स्वतंत्र व ताकतवर बनाती है। सरकारें तो उन्हें चलने भी न दें।
आगे और लड़ाई है
हम अभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ककहरा ही पढ़ रहे है और हजार आफत हैं। भ्रष्टाचार में देने वाले हाथों को बांधना भी जरूरी होता है। विकासशील देशों में कंपनियां 20 से 40 अरब डॉलर की रिश्वतें हर साल देती हैं, जो नेताओं व अधिकारियों की जेब में जाती हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया की निजी कंपनियों के 2700 अधिकारियों के बीच एक सर्वे में पाया था कि भारत, पाकिस्तान, इजिप्ट, नाइजीरिया में करीब 60 फीसदी कंपनियों को रिश्वत देनी होती है। बहुरराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 10 से 25 फीसदी तक बढ़ा देता है। इथिस्फियर संगठन, दुनिया में सबसे साफ सुथरी कंपनियों की पड़ताल करता है, इसकी सूची में एक भी भारतीय कंपनी नहीं है। यहां तक दुनिया के तमाम नामचीन ब्रांडों व कंपनियों को कारोबारी पारदर्शिता की रेटिंग में जगह नहीं मिली है। इथिस्फियर ने निष्कर्ष दिया था कि पारदर्शी कंपनियों ने 2007 से 2011 के बीच शेयर बाजार में अन्य कंपनियों के मुकाबले ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया। यानी बाजार पारदर्शिता की कद्र करता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इस दिशा में बढ़ेगी तो पेचीदगी और चुनौतियां नए किस्म की होंगी। यूरोप व अमेरिका इन देने वाले हाथों की मुश्कें भी कसने लगे हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है, क्योंकि इसमें अपनी व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं। सरकारें विशाल मशीन हैं, जिन्हें राजनीति चलाती है। लोकतंत्रों में पांच साल के लिए मिला जनसमर्थन अक्सर संविधान के मनमाने इस्तेमाल की गारंटी बन जाता है। पारदर्शिता को रोकने के लिए सरकारों ने अपनी इस संवैधानिक ताकत का अक्सर बेजा इस्तेमाल किया है। फिर भी दुनिया भ्रष्टाचार से लड़ रही है, क्योंकि भ्रष्टाचार सबसे संगठित किस्म का मानवाधिकार उल्लंघन है। यह वित्तीय पारदर्शिता को समाप्त करता है और विकास को रोकता है। दुनिया के बहुतेरे देश हमारे साहस पर रश्क कर रहे हैं। हमें फº होना चाहिए कि हम दुनिया में बहुतों से पहले जग गए हैं। और जब जग गए तो हैं तो अब सोने की कोई वजह नहीं है।
सही पथ
princ kumar
अपने जीवन का उज्जवल पक्ष देखना हमारी समस्याओं का एक सुंदर समाधान है। जब भी लगे कि अभाव बहुत है, संकट अधिक है, तब यह देखना उपयुक्त होगा कि इन स्थितियों में जीवन में उपलब्धियां भी तो हैं। ये उपलब्धियां सभी को प्राप्त नहीं। किसी को विद्या प्राप्त है, किसी को धन प्राप्त है, कोई सेवा में है, कोई श्रमिक है, प्रत्येक की उपलब्धियों का उसके लिए महत्व है। श्रमिक का श्रम, धनी के धन से कम महत्वपूर्ण नहीं है। अत: संपूर्ण उपलब्धियां एक साथ न होने पर जो प्राप्त हुआ है वह महत्वपूर्ण है।
दूसरों को कष्ट न देकर, नीति मार्ग का उल्लंघन न करके जो भी प्राप्त हो उसे बहुत समझना चाहिए। यही जीवन-दर्शन है। संतोष का मार्ग पलायन या पराजय नहीं, अपितु जीवन की सही दृष्टि है। सत्पथ है, जो हमें निराशा से बचाता है। जीवन की समीक्षा करने पर हम पाते हैं कि अनेक बार हमारी दुष्चिंताएं व्यर्थ होती हैं। हम शंकाग्रस्त रहते हैं, किंतु उस प्रकार की कोई घटनाएं नहीं घटित होतीं। अत: चिंतन हो तो अच्छा चिंतन हो। हर-समय मंथन अच्छा नहीं, विचारशून्यता भी जीवन का आवश्यक पक्ष है। अपनी उपलब्धियों को हम गौण समझ लेते हैं और जो उपलब्ध नहीं है, उसकी चाह हमें दौड़ाती रहती है। तथ्य यह है कि हमें दैनंदिन जीवन में उपलब्धियों का आनंद लेना चाहिए, किंतु हम ऐसा नहीं कर पाते। दृष्टि बदलना आवश्यक है। सकारात्मक दृष्टि हमें शांति देती है। हमारे अहंकार के अनुसार सब हो जाए, यह संभव नहीं है। जो हमें मिला है, उसका विचार करें तो पाएंगे कि विद्या, बुद्धि, धन, पद, वृत्ति, चिंतन, सत्संग और साहित्य आदि के रूप में हमें हमारी योग्यता से कहीं अधिक प्राप्त हुआ है। सच मानिए यही जीवन का अनंत वरदान है। प्रयास निरंतर जारी रखें। प्रयास करने पर भी यदि सफलता नहीं मिलती, तो इसमें मनुष्य का कोई दोष नहीं। अत: हम सभी को अपना कर्तव्य करना चाहिए और प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करना चाहिए। परमपिता से सर्व कल्याण की प्रार्थना करनी चाहिए। सर्व कल्याण में ही आत्मकल्याण भी निहित होता है। princ kumar
जनशक्ति का नया अध्याय
vidya sagar
राष्ट्रनिर्माण के कार्य में किसी व्यक्ति या संस्था की जीत-हार का कोई मतलब नहीं होता। व्यक्ति रूप में गांधी भी वह सब नहीं कर पाए, जो करना चाहते थे। हिंदू-मुस्लिम एका के सवाल पर उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की थी। वे भारत विभाजन के विरुद्ध थे, देश तो भी बंट गया। बावजूद इसके वे राष्ट्रपिता हैं। उन्होंने देश को सत्याग्रह, सादगी, स्वदेशी और स्वराष्ट्रभाव की एक खास शैली दी। अन्ना उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
अन्ना के सपनों वाले जनलोकपाल का प्रभावी रूप में काम करना और देश का भ्रष्टाचार मुक्त होना बाद की बाते हैं, लेकिन अन्ना ने देश के कोने-कोने 'राष्ट्र सर्वोपरिता' का भाव जगाया है। उन्होंने देश के लिए ही जान की बाजी लगाई है। नतीजा सामने है। फिल्मी गानों में मस्त रहने वाले युवा 'भारत माता की जय' और 'वंदेमातरम' के जयघोष में व्यस्त हैं। राष्ट्रध्वज की प्रीति और श्रद्धा बढ़ी है। राजनीति और राजकोष की निगरानी पर जनता की दृष्टि धारदार हुई है। भ्रष्टाचार आम आदमी का मुद्दा बना है। पहले यह सबकी पीड़ा थी, अब सबका साझा गुस्सा है। अन्ना ने व्यापक राष्ट्रीय जनआक्रोश को नेतृत्व और मंच दिया है। आश्चर्य है कि केंद्रीय सत्ता ऐसी साधारण बात भी क्यों नहीं समझ पाती?
शीर्ष राजनीतिक भ्रष्टाचार की शुरुआत कांग्रेस ने ही की। भ्रष्ट्राचार पहले निंदनीय था, फिर व्यावहारिक राजनीति का अनिवार्य हिस्सा बना। पहले शीर्ष पर था, बड़े राजनेताओं और आला अफसरों का विशेषाधिकार था, फिर उसका विकेंद्रीकरण हुआ। वह राज्यों की राजधानियों में पहुंचा, जिला कचहरियों में घुसा और देखते ही देखते गांव प्रधान, लेखपाल, सिपाही और सींचपाल का जीवनस्तर बदलने लगा। अन्ना के आंदोलन को मध्यवर्गीय कहा जा रहा है। भारतीय विदेश सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी पवन वर्मा ने कोई 15-16 वर्ष पहले लिखी किताब 'दि ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास' में भ्रष्टाचार से जुड़ी मध्य वर्गीय मानसिकता के तीन चरण बताए। वह भष्टाचार का शिकार हुआ। उसकी आलोचना की और फिर स्वयं उसमें भागीदार हुआ। अन्ना के आंदोलन ने इसमें चौथा चरण जोड़ा कि वह पैंतरा बदलकर सीधे मैदान में आ गया। उसे ऐसा करने का अवसर सत्ता ने ही दिया। पहले सब्र था कि देरसबेर सबकुछ ठीक होगा। सरकारें बदलती रहीं, लेकिन व्यवस्था जस की तस रही। भ्रष्टाचार चेहरा विहीन था। केंद्र के आचरण से भ्रष्टाचार का भयानक चेहरा प्रकट हुआ। परदा उठा तो सत्ता ही भ्रष्टाचार थी, वही भ्रष्टाचारी भी थी। कोर्ट और कैग आगे आए, केंद्र का रुख फिर भी अड़ियल रहा। सब्र का बांध टूट गया। जनता सड़कों पर है।
अन्ना आंदोलन के प्रभाव लोकमंगलकारी हैं। यहां दो विचारों की टक्कर हुई। अन्ना लोकशक्ति के प्रतीक बने। सरकार भ्रष्टाचार और सत्तासंस्थान का चेहरा है। संविधान की प्रस्तावना 'हम भारत के लोग' से शुरू होती है, अन्ना 'हम भारत के लोगों' के प्रतिनिधि बने। सत्ता की भूमिका बहुमत के संवैधानिक शासन से शुरू होती है, लेकिन यहां भष्टाचार की सत्ता है और सत्ता का भ्रष्टाचार है। अन्ना ने सत्ता परिवर्तन की मांग नहीं की, सिर्फ भ्रष्टाचार की निगरानी करने वाले एक तगड़े पहरेदार की ही मांग की है। केंद्र राजनीति का स्कूली पाठ पढ़ाती है-संसद सर्वोपरि है कि वह संसद के काम में दखल नहीं देती। अन्ना को नसीहत दी गई कि वह भी संसद को सर्वोच्च मानें। लेकिन हरेक दल के सांसद दलीय अनुशासन में ही वोट डालते हैं। दल के निर्देश का उल्लंघन सांसदी छीन लेता है। तब संसद संप्रभु कहां हुई? 'नोट के बदले वोट' का मसला विचाराधीन है। अन्ना आंदोलन ने राष्ट्र जागरण किया है। सरकार को उसकी हैसियत बताई है। जनगणमन को भी अपनी शक्ति का अहसास कराया है। इस आंदोलन ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत और पुष्ट बनाया है।
अन्ना आंदोलन से राष्ट्रीय एकता का भाव उमड़ा है। कांग्रेसी इशारे पर इसे इस्लाम विरोधी बताने वाले लोग शर्मिदा हैं। इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा प्रायोजित बताने वाले भी लज्जित हैं। अन्ना आंदोलन ने सत्ता शक्ति को झुकाया है। इतिहास में जनशक्ति की जीत का नया अध्याय जुड़ गया है। भविष्य की पीढि़यां याद रखेंगी कि सर्वशक्तिमान भ्रष्टाचारी सत्ता को भी निहत्थों द्वारा हराया जा सकता है। राष्ट्रभाव जीत गया है। भ्रष्ट सरकार हार गई है। सड़कों पर उमड़ी भीड़ बढ़े राष्ट्रभाव का ही प्रभाव है।
इच्छाशक्ति
प्रिन्स
वृक्ष का हरियाली से परिपूर्ण भाग जो दृष्ट है वह वर्तमान है और उसका अदृष्ट भाग, जो धरती के भीतर है वह अतीत की तरह है। अतीत के कर्मो की पूंजी से वर्तमान का अस्तित्वरूपी भवन निर्मित हुआ है। वह उतना ही हरा-भरा होगा जितनी उसे कर्मो की उर्वर भूमि अतीत में प्राप्त हुई होगी। अत: वर्तमान के सुख के लिए अतीत का निष्कलंक होना आवश्यक है व भविष्य के सुखों के लिए वर्तमान का सुखद व उन्नत होना, अतीत में जो बोया होगा कड़वा या मीठा बीज, समय के पेड़ पर उसी के फल तो लगेंगे।
केवल चिंताओं की नाव से सांसारिक भवसागर पार नहीं किया जा सकता है। जीव अपने संचित कर्मो के दुष्प्रभावों से प्रेरित हो अच्छे कर्मो को टालता चला जाता है तथा बुरे कार्यो की ओर स्वत: खिंचा चला जाता है। जब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं तो पराजित सैनिक सा इधर-उधर किसी तांत्रिक, ज्योतिषी या दैवीय चमत्कार की प्रतीक्षा करता है। उनके आगे-पीछे मारा-मारा फिरता है, जाने कितने-कितने ताबीज व यंत्र धारण करता है। कितने-कितने गुरुओं के भ्रमित मोहजाल में फंसता है..लेकिन खुशी हाथ नहीं लगती। शांति छू भर नहीं पाती उल्टा संदेहों के मकड़जाल में पड़ जीवन को भयावह मोड़ पर छोड़ विक्षुब्ध सा दूसरी ओर उड़ चलता है। एक घायल व रुग्ण व्यक्ति को चिंताएं, दुआएं व कमजोरियां बांह पकड़कर प्राश्रय नहीं देतीं। प्राश्रय देता है तो उसका अपना पौरुष, जीवन से लड़ने की जिजीविषा व सार्थक दिशा की ओर अग्रसर होने वाली दृढ़ इच्छाशक्ति। देह में ऊर्जा, शक्ति, विश्वास, स्वाभिमान, अस्तित्वबोध व जीवन की उजास तभी आएगी जब वह स्वयं में ऊर्जा का संचार उठने व जीवन की दुर्बलताओं से लड़ने का साहस जुटाएगा। जीवन में, देह में, संकल्पों में यदि कोई बदलाव या शक्ति तभी पैदा होगी जब आप स्वयं में शक्ति का संचार करेंगे, संकल्पों में दृढ़ता लाएंगे, दृढ़ इच्छाशक्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर मन की हीनता, शक्तिहीनता व देह की असमर्थता का होम कर देंगे।Thursday, 25 August 2011
चुनाव सुधार पर भी शुरू हो बहस
गणेश प्रसाद
जन लोकपाल बिल पर अन्ना का आंदोलन रंग लाता दिख रहा है। टीम अन्ना ने यह संकेत भी दे दिया है कि यह मुहिम भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देने वाले अन्य मुद्दों को भी शामिल करेगी। चुनाव सुधार भी ऐसा ही एक मसला है, जो आम जनता को आंदोलित कर रहा है। लोकतंत्र को धनिकतंत्र में तब्दील करने वाली चुनाव प्रक्रिया को हटाने के लिए तुरंत राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है। इस गंदगी की सफाई के लिए भ्रष्ट और आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों को बढ़ावा देने वाले राजनीतिक दलों को कानूनी दायरे में लाना बेहद अहम है। उत्तर प्रदेश समेत कुछ राज्यों में चुनावी मौसम जोर पकड़ने लगा है। जिताऊ प्रत्याशी पाने के लिए पार्टियां पलक पांवड़े बिछाकर बैठ गई हंै। जिताऊ सीट पाने के लिए नेता कपड़ों की तरह धड़ाधड़ पार्टियां बदल रहे हैं। कोई भी डूबते जहाज पर बैठकर नदी नहीं पार करना चाहता। जाहिर है कि ऐसे विधायकों के लिए पार्टी, सिद्धांत और विचारधारा कोई मायने नहीं रखते। सत्ता में बने रहना उनका एकमात्र मकसद है, जिससे उनका भ्रष्ट सिंडिकेट बगैर अड़चन के काम करता रहे।
चुनाव के ऐन वक्त पहले जनप्रतिनिधियों के दल बदलने को गंभीर नहीं माना जाता, लेकिन आंकड़ों को खंगाला जाए तो पता चलेगा कि ऐसा करने वाले नेतागण ही चुनाव के बाद दल-बदल और विधायकों की खरीद-फरोख्त का हिस्सा होते हैं। इनमें से ही ज्यादातर आपराधिक और भ्रष्ट कामों में लिप्त और धन-बल-छल के सहारे चुनाव जीतकर आए राजनेता शुमार हैं। बदकिस्मती से चुनाव आयोग इस पर लगाम लगाने में असमर्थ है। उसके पास पर्याप्त संवैधानिक हथियार नहीं हैं। राजनीतिक दल और नेताओं को संविधान, नैतिकता और कानून के दायरे में बांधना नहीं सुहाएगा। मौजूदा दलबदल कानून निष्प्रभावी साबित हुआ है। होना यह चाहिए कि नई पार्टी में शामिल होने पर जनप्रतिनिधि के लिए अपने पद से इस्तीफा देना अनिवार्य किया जाए। साथ ही उस पर नई पार्टी की ओर से मंत्रिपद या लाभ का कोई और पद ग्रहण करने पर रोक लगे। इससे सरकार बनाने-गिराने के लिए हो रही खरीद-फरोख्त पर लगाम लगेगी। राजनीतिक दलों ने येन केन प्रकारेण चुनावी प्रक्रिया को बंधक बना रखा है। ये पार्टियां अपने संविधान में बदलाव कर चुनाव पूर्व दल-बदल पर रोक लगाएंगी, ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।
आपराधिक छवि वाले दागी प्रत्याशियों को टिकट न देने के मामले में उनकी बेहयाई पहले से ही जगजाहिर है। जिन जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले हैं, उनकी फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई पर फैसला भी अरसे से लटका है। ऐसे में चुनाव सुधार का दूसरा दौर राजनीतिक दलों पर केंद्रित हो तो बेहतर नतीजे मिलेंगे। इस मुद्दे पर जनमत तैयार कर सरकार को विवश करना होगा कि वह चुनाव आयोग को ऐसी शक्तियां दे, जिससे सत्ता के लालच में चुनाव पूर्व पार्टी बदलने वालों को सबक सिखाया जाए और राजनीतिक दलों को भी लोकतांत्रिक और संवैधानिक दायरे में बांधा जा सके। दलबदल के मामले में चुनाव के छह महीने या साल भर पहले पार्टी बदलने वाले नेताओं को आगामी चुनाव में उतरने की इजाजत न मिले या किसी अधिकृत पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए उस दल की कम से कम दो साल की सदस्यता को अनिवार्य बनाया जा सकता है। चुनाव के ठीक पहले सीट बदलकर जिताऊ पार्टी खोजने वालों को झटका लगेगा। नए उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के लिए किसी राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय पार्टी का कम से कम पांच साल सदस्य होना जरूरी बनाया जाए। इससे आयातित और थोपे गए लोगों की उम्मीदवारी कम होगी और पार्टी के अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। अक्सर देखा गया है कि बड़े नेताओं ने अपने बेटों और परिवारजनों को टिकट दिला दिया। जब इन राजनीतिक नौसिखियों ने चुनाव लड़ने की उम्र बस पूरी ही की थी। राजनीतिक दलों से उम्मीदवारों के चयन में अमेरिकी पद्धति ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी प्रतीत होती है। किसी क्षेत्र से उम्मीदवार तय करने के लिए पार्टी में पहले आंतरिक चुनाव होता है। उस क्षेत्र से पार्टी का कोई भी प्रतिनिधि चुनाव लड़ने का दावा ठोक सकता है। फिर वोटों के आधार पर तय होता है कि कौन उस दल का अधिकृत उम्मीदवार होगा। यही परंपरा यहां भी लागू हो तो राजनीतिक दलों में व्याप्त तानाशाही खत्म होगी। राजनीतिक दलों की बाढ़ भी चिंताजनक है।
चुनाव आयोग को नई पार्टियों को मान्यता देने का अधिकार तो है, लेकिन किसी दल की मान्यता रद करने का नहीं। राजनीतिक दलों को मान्यता देने, उसे रद करने, उसके आंतरिक संविधान से लेकर सांगठनिक ढांचे को परिभाषित करने वाला कानून समय की मांग है। ज्यादातर राजनीतिक दल अपने मनमुताबिक संविधान बनाकर पार्टी को अधिनायकवादी व्यवस्था में तब्दील कर लेते हैं। परिवारवाद और वंशवाद पर टिके तमाम दल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। चुनाव में धन के बेतहाशा इस्तेमाल से हमारा लोकतंत्र धनिकतंत्र में तब्दील होता जा रहा है। दलों को ऐसे पूंजीपति उम्मीदवारों की तलाश होती है, जो चुनाव प्रचार में अंधाधुंध रकम खर्च कर सकें। संसदीय चुनावों में खर्च की वैधानिक सीमा 25 लाख रुपये तक हो गई है, जो देश के 95 फीसदी लोगों के बूते के बाहर है। आयोग को यह बात समझनी होगी कि धुआंधार प्रचार, उम्मीदवारों का लाव-लश्कर भी मतदाताओं को प्रभावित करता है। चुनाव में काले धन का इस्तेमाल और उपहार बांटने वाले उम्मीदवारों को अगर पकड़ भी लिया जाता है तो उनकी उम्मीदवारी चुनाव आयोग रद नहीं कर सकता। ऐसे में राजनीतिक दल और उनके नेता आचार संहिता का मखौल उड़ाते हैं।
चुनाव आयोग ने महिला एवं अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को प्रचार के लिए धन मुहैया कराने पर विचार कर रखा है, लेकिन इससे सबको राजनीतिक प्रतिनिधित्व के समान अवसर नहीं मिलते। होना तो यह चाहिए कि चुनाव आयोग का स्वयं का एक न्यायिक प्रकोष्ठ हो, जो आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर विचार करे और मामले की गंभीरता के हिसाब से जुर्माना लगाने से लेकर उम्मीदवारी रद करने तक की सजा तय कर सके। आपराधिक मामला भी अलग चलता रहे। एक और समस्या चुनाव के दौरान अक्सर मतदाताओं के समक्ष विकल्पहीनता की स्थिति है, क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि कोई भी उम्मीदवार उनका प्रतिनिधित्व करने के योग्य है। नेगेटिव वोटिंग यानी किसी को वोट नहीं का विकल्प भी मतदाताओं को मिलना चाहिए। कोई भी उम्मीदवार 50 फीसदी वोट हासिल न कर सके तो पहले दो या तीन प्रत्याशियों के बीच दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि राजनीतिक दलों की गतिविधियों, उनके हिसाब-किताब और चुनाव में भागीदारी तक के बारे में एक कानूनी ढांचा तैयार हो, जिससे उन्हें अनुशासित रखा जा सके और चुनाव प्रक्रिया को ज्यादा स्वच्छ और पारदर्शिता मिल सके। इससे लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल खुद लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने के लिए मजबूर हों। यह चुनाव सुधार की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
शिक्षा में अराजक तत्व
प्रिन्स कुमार
हमारी शिक्षा व्यवस्था लगातार गिरावट की शिकार हो रही है, यह बात बार-बार कही जाती है। आमतौर पर इसके लिए संपूर्णता में व्यवस्था को जिम्मेदार माना जाता है और उसे ही दोष दिया जाता है। यह एक सामान्य प्रवृत्ति बन गई है कि हम हर बात के लिए सरकार या व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं। यह सोचे बगैर कि अब सरकार या व्यवस्था हमारे ऊपर कहीं से थोपी गई नहीं, बल्कि हमारी चुनी हुई है और यह सुचारु रूप से काम करे, इसके लिए हमारा अपना योगदान बहुत जरूरी है। हम जिस किसी भी स्तर पर हैं, वहां अगर अपना काम पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ करना शुरू कर दें तो बहुत सारी गड़बडि़यां अपने आप सुधर जाएंगी। शिक्षा व्यवस्था के मामले में भी यह बात उतनी ही सही बैठती है। इसमें गिरावट के लिए सरकार कुछ हद तक जिम्मेदार तो है, लेकिन सिर्फ वही जिम्मेदार नहीं है। इसमें घुस आए कुछ अराजक तत्व भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। हाल ही में पंजाब के जालंधर जिले में हुई एक घटना इसका ताजा उदाहरण है। वहां एक सरकारी एलीमेंटरी स्कूल के एक अध्यापक को छात्राओं को अश्लीलता का पाठ पढ़ाते पकड़ा गया। इस अध्यापक पर यह आरोप था कि वह छात्राओं को अलग से अपने कमरे में बुलाकर शारीरिक ज्ञान के बहाने उनके अंगों को छूता था और उनके साथ अश्लील हरकतें करता था। इसकी खबर कान में पड़ते ही अभिभावकों ने गांव की पंचायत के साथ मिलकर थाने में शिकायत दर्ज करवाई और शिक्षक को गिरफ्तार करवा दिया। इसके पहले फिरोजपुर जिले के फाजिल्का में एक कॉलेज के प्रिंसिपल ने नशे में चूर होकर नाबालिग लड़कियों से छेड़छाड़ की। ये लड़कियां वहां प्रदेश स्तरीय फुटबाल मुकाबले की रिहर्सल के लिए आई थीं। उन्हें रात में कॉलेज में ही रुकना था।
नशे में धुत होकर जब प्रिंसिपल लड़कियों से छेड़छाड़ करने लगा तो चौकीदार ने इसकी सूचना गांव के पूर्व सरपंच को दी और पूर्व सरपंच ने गांव के लोगों के साथ पहुंचकर लड़कियों को बचाया। पूर्व सरपंच ने लड़कियों को गांव में ठहराने की व्यवस्था बनाई और प्रिंसिपल को पुलिस के सिपुर्द कर दिया। इन दोनों ही मामलों में लड़कियों को खतरा खुद शिक्षकों से हुआ और उन्हें बचाया या तो अभिभावकों या फिर अन्य लोगों ने। जाहिर है, शिक्षा के मंदिरों की पवित्रता ऐसी कुत्सित मानसिकता वाले लोगों के चलते बाधित हुई है। ये घटनाएं अकेली नहीं हैं। ऐसी तमाम घटनाएं देश भर में आए दिन होती रहती हैं। कई बार पीडि़त पक्ष अपनी आवाज बुलंद करता है और कई बार वह चुपचाप अत्याचार बर्दाश्त कर लेता है। अत्याचार बर्दाश्त करने की भी कई वजहें होती हैं। कभी लोग केवल लालच के कारण अत्याचार बर्दाश्त कर लेते हैं तो कई बार बदनामी के भयवश। ऐसे अत्याचार बर्दाश्त करने वालों में सिर्फ लड़कियां ही नहीं होती हैं, लड़के भी होते हैं। कई बार वे आवाज उठाते भी हैं तो उनकी बात को वह महत्व नहीं मिल पाता है। कई बार व्यवस्था के दूसरे अंग उन्हें डांट-फटकार कर चुप करा देते हैं और कई बार तो घरों में ही उन्हें मान-सम्मान का हवाला देकर चुप करा दिया जाता है। यह अलग बात है कि इसके लिए खुद भुक्तभोगियों की जिम्मेदारी नगण्य होती है, लेकिन समाज की पिछड़ेपन की मानसिकता के कारण वे स्वयं को ही दोषी मानने लगते हैं।
अधिकतर लड़कियां इसी मानसिकता की शिकार होकर अत्याचार सहते रहने के लिए विवश होती हैं। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों हमारा समाज पिछड़ेपन की अपनी मानसिकता से बाहर निकल कर दोषियों को सबक सिखाने के मूड में नहीं आ पा रहा है? अगर इन दोनों घटनाओं पर गौर किया जाए तो सबसे पहली बात जो सामने आती है, वह है पीडि़त लड़कियों के पक्ष में दूसरे लोगों की कोशिशें। इनमें पहले यानी जालंधर के स्कूल वाले मामले में लड़कियों के अभिभावकों ने उन पर विश्र्वास करते हुए उनके पक्ष में पहल की। उन्होंने कोई अवैधानिक हरकत नहीं की और झूठमूठ के सामाजिक भय के भी शिकार नहीं हुए। अभिभावकों ने वही किया जो उन्हें ऐसे मामले में करना चाहिए था। इस मामले में अभिभावकों ने समझ की परिपक्वता का परिचय दिया है। दूसरे यानी फाजिल्का के कॉलेज वाले मामले में चौकीदार ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। दुराचारी प्रिंसिपल द्वारा धमकी दिए जाने के बावजूद उसने न तो अपनी नौकरी की परवाह की और न ही किसी और बात की। उसे कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने गांव के पूर्व सरपंच को फोन किया। पूर्व सरपंच ने पुलिस को सूचना दी और लड़कियों के लिए रात में सोने की व्यवस्था अपने गांव में बनाई। बाद में उन्होंने लड़कियों के अभिभावकों को भी सूचित किया और अंतत: उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कराई। बुनियादी तौर पर ये दोनों ही मामले केवल अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ने और कदाचार के ही नहीं, बल्कि विश्र्वासघात के भी हैं।
कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को यह मान कर विद्यालय नहीं भेजता है कि वहां उनके मान-सम्मान के साथ छेड़छाड़ होगी या उन्हें गलत रास्तों पर चलने के लिए उकसाया जाएगा। मूल रूप से सभी अपने बच्चों को स्कूल अच्छी शिक्षा प्राप्त करने और देश का सुयोग्य नागरिक बनने के लिए भेजते हैं। लेकिन शिक्षा के मंदिरों में ऐसे अराजक तत्वों को प्रवेश मिलना इस मूलभूत उद्देश्य में बाधक बन रहा है। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति अचानक आ गई है। पहले भी यह सब होता रहा है, लेकिन लोग कुछ तो भविष्य की चिंता और कुछ परिवारी की बदनामी के डर से ऐसे दुराचारी तत्वों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते थे। अभी भी कुछ आवाजें इन्हीं वजहों से दब जाती हैं। पर अब ऐसी स्थितियों में दबने की जरूरत नहीं है। लोगों को इस संबंध में जागरूक बनाया जाना चाहिए कि वे ऐसी घटनाओं के खिलाफ तुरंत उठ खड़े हों। सच तो यह है कि ऐसे अराजक तत्व व्यवस्था में खामियों का उतना लाभ नहीं उठाते हैं, जितना हमारे सामाजिक-आर्थिक भय का। अगर हम अपने भीतर से भय निकाल दें और अन्याय व दुराचार के खिलाफ तन कर खड़े होना सीख जाएं तो इनकी दाल गलनी भी बंद हो जाएगी। व्यवस्था से यह मांग जरूर की जानी चाहिए कि वह शिक्षकों की चयन प्रक्रिया में पर्याप्त सतर्कता बरते, लेकिन इस मामले में केवल व्यवस्था से ही पूरी सुरक्षा व्यवस्था की उम्मीद नहीं की जा सकती है। क्योंकि शिक्षक भी मनुष्य है और व्यवस्था सिर्फ उसकी योग्यता ही परख सकती है। किसी के चरित्र को अंतिम रूप से परखना किसी भी प्रणाली के लिए संभव नहीं है। इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि अगर व्यवस्था से भूलवश कोई गलती हो गई है तो हम हमेशा उसके दुष्परिणाम भुगतते रहें। ऐसे मामलों में हमें खुद जागरूकता का परिचय देना होगा और अगर आम आदमी अराजक और दुराचारी तत्वों के खिलाफ उठ खड़ा हो तो किसी भी व्यवस्था के बस की यह बात नहीं है कि वह उन्हें बचा ले।
देश के कर्णधारो, सावधान, भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतर आया है हिंदुस्तान
प्रिन्स कुमार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि वे बहुत दुखी हैं क्योंकि लोग उनकी सरकार को देश की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार कह रहे हैं। मनमोहन जी धन्यवाद और आभार। यह खुशी और राहत की बात है कि हमारे देश के मुखिया (अन्ना की भाषा में पंत प्रधान) की संवेदना मरी नहीं, उसे भी दुख और ग्लानि सताती है। यह बातें सुकून देती हैं कि हमारे प्रधानमंत्री को देश , अपनी सरकार की चिंता है। इससे यह तो लगता ही है कि आज नहीं तो कल वे दलों के दलदल और कानूनी पेंचीदगियों से आगे उठ कर अपने दिल और दिमाग की सुनेंगे। गहराई से सोचेंगे कि अन्ना की मांगे वाजिब हैं दरअसल ये बातें तो खुद उनके विधेयक में आनी चाहिए थीं, ऐसा होता तो न अन्ना को इसके लिए लड़ना पड़ता और न ही सिंह साहब को आज आत्मग्लानि झेलनी पड़ती। अन्ना की मांग को सरकार तरजीह नहीं दे सकी। सिंह साहब के नेतृत्व में सर्वदलीय बैठक भी इसका निराकरण नहीं कर सकी। हर दल इस आंदोलनों को अपनी तरह से भुनाने में लगा है और अपनी भद भी पिटा रहा है। जो दल अन्ना की उपेक्षा कर रहा है वह जनता से कटता जा रहा है। मनमोहन सिंह जी आप प्रबुद्ध हैं, वरिष्ठ हैं हमारे मान्य और देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री हैं, हमें आपको अपने देश का कर्णधार पाकर गर्व है। यह ठकुरसुहाती नहीं आपके देश के एक नागरिक की आपके प्रति सच्ची श्रद्धा है। कम से कम आप पर तो अब तक कोई लांक्षन नहीं लगा। आप एक बार सिर्फ एक बार अपने सलाहकारों की बातों और मशविरों को अलग रख कर अपने अंतस से विचार कीजिए कि जो बुजुर्ग रामलीला मैदान में जान की बाजी लगाये बैठा है, वह कहां से और कैसे गलत है। उसने तो न प्रधानमंत्री का पद मांगा न राष्ट्रपति का। वह तो अपने देशवासियों के लिए भ्रष्टाचार मुक्त देश चाहता है वह भी आपके नेत्त्व वाली संसद की मदद से। इसमें कहां और क्या गलत है, इतना पूछने-जानने का हक तो आपके इस सामान्य नागरिक को है। क्या इसका जवाब देंगे प्रधानमंत्री जी। देश एक गंभीर संकट की ओर बढ़ रहा है, कृपया इसे बचा लीजिए। आप ऐसा करेंगे तो पूरा देश आपका आभारी होगा और आपके साथ खड़ा होगा। लोगों की आकांक्षाओं के लिए अगर संविधान भी बदलना पड़े तो बदलिए। नेक इरादे से किया गया हर काम पुण्य और पवित्र होता है। संविधान की अपनी एक गरिमा है लेकिन वह भी तो जनहित के लिए बना है फिर जनहित में उसे एक बार बदलना पड़े तो क्या गलत है। इसमें सर्व सम्मति क्यों नहीं होनी चाहिए। जो इसकी खिलाफत करेगा, साफ है वह जनहित के विरुद्ध खड़ा है। उससे जनता मौका आने पर अपने तरीके से निपट लेगी।अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक और उनके अनशन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हुई सर्वदलीय बैठक का बेनतीजा रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे अन्ना की जान और राष्ट्र का सम्मान दांव पर लग गया है। भारत की दुनिया में अलग पहचान है जो राजनीतिक चालों और दावपेंचों से म्लान और कलुषित हो रही है।बैठक का लब्बोलुआब यह निकला कि संसद सर्वोच्च है। तो हे देश के नीति और दिशा निर्धारको, अन्ना ने कब कहा है कि वे संसद को नहीं मानते। वे भी तो अपना जन लोकपाल विधेयक ( जो आपका सबका होना चाहिए था लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि जिसके हाथों में सत्ता है, वही जनहित से विमुख है) संसद से ही तो पारित कराना चाहते हैं लेकिन आप ऐसा नहीं होने दे रहे। वैसे आपकी महती कृपा कि आप सबको अन्ना की जान की चिंता है, पर उनकी जायज बात मानने की दिशा में कुछ करना नहीं चाहते। पता नहीं इस राह में बाधा क्या है और कहां है। कहीं इस जायज बात को मानने से आपके राजनीतिक स्वार्थों में बाधा तो नहीं पहुंच रही। एक व्यक्ति देश के लिए मर रहा है और आप जो देश का हितैषी होने का दावा कर रहे हैं उससे राजनीतिक दांवपेंच खेल कर उसकी जान संकट में डाल रहे हैं। क्या सोच रहे हैं देश आपको माफ कर देगा। आज नहीं तो कल आपको उसी हिंदुस्तान के सामने वोट की भीख मांगने जाना पड़ेगा जो आपकी अकर्मण्यता और नाकारापन के खिलाफ सड़कों पर उतर आया है।
देश के नेताओ, सांसदो (सत्ता पक्ष –विपक्ष) आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस जनसमर्थन को सीढ़ी बना आप संसद में विराजते हैं, वह आज अन्ना के साथ तन, मन, धन से खड़ा है। जो अन्ना के साथ खड़ा है, वही भारत है, जो उनसे अलग और खिलाफ हैं, वे सुविधाभोगी, मतलबी और मौकापरस्त हैं। माफ कीजिएगा, इन चंद लोगों से भारत नहीं बनता,भारत बनता है उन करोड़ों अन्ना अनुरागियों से जो देश को भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं। आज देश के क्या हालात हैं यह आमजन जानता है। वह आमजन जिसे सामान्य सरकारी सुविधा (जो उसे देना सरकार का परम कर्तव्य है) पाने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं, अफसरों के आगे गिड़गिड़ाना और अक्सर घूस भी देने को विवश होना पड़ता है। जहां कई मंत्री और उच्च अधिकारी तक भ्रष्टाचार में लिप्त हों वहां आम आदमी की स्थिति कितनी दयनीय हो गयी है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। भगत सिंह, महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस जैसे असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसे भारत का सपना तो नहीं देखा था। अगर आज देश का सीमांत किसान, दलित और आमजन दुखी हैं, सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं तो यह उन वीर शहीदों का अपमान है जिन्होंने देश को दासता से मुक्त करने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये।
शासक दंभ करते हैं कि हमारा देश सुपरपावर बनने की दिशा मे बढ़ रहा है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सुचारु स्वास्थ्य सेवा, शिक्षण व्यवस्था यहां तक कि पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका। कुछ माडल गांवो के लूप में विकसित सौभाग्यशाली गांवों को छोड दीजिए । सिर्फ इन गांवों से ही भारत नहीं बनता भारत उन गांवों का भी नाम है जहां सुविधा के नाम पर अभी भी शून्य है। आमजन की सुख-सुविधा की कीमत पर अगर भारत सुपरपावर बनने जा रहा है तो बेहतर है यह नहीं बने।
जहां सत्ता सिर्फ और सिर्फ धनपतियों श्रीमंतों की हित चिंतक हो वहां एक न एक दिन जनआक्रोश का ज्वालामुखी जनक्रांति में तो बदलेगा ही। कहीं अन्ना का आंदोलन उस महा अभियान का संकेत तो नहीं। अन्ना वह हस्ती हैं जिनमें अपने आंदोलन को अहिंसक रखने की ताकत है। कहीं यह आंदोलन उनके हाथ से फिसला और जनाक्रोश में बदल गया तो क्या होगा। आदमी के धैर्य की भी एक सीमा होती है। बेहतर है कि वह टूटे इससे पहले उसकी समस्या का निराकरण हो जाये।
आज आधुनिक भीष्म अन्ना जनता के हित को लिए धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं ऐसे में उनका कद इतना ऊंचा हो गया है कि उसके आगे हर पद, हर आसन बौना पड़ गया है। जो नेता या सांसद दागदार हैं वे अन्ना के खिलाफ बोलते हैं यह तो समझ में आता है क्योंकि अन्ना के आंदोलन से उनके हितों पर चोट लगती है लेकिन बाकी सांसदों का मानस किस नियम या कायदे का गुलाम है जो वे अन्ना की बातों पर देश सहमत नहीं हो पाये। सिर्फ हम नहीं कल हिंदुस्तान भी उनसे यह सवाल पूछेगा और जब उसकी बारी आयेगी संभव है वह उनका सत्ता सुख भी छीन ले। उन सांसदों का धन्यवाद जो अपने दल के दलदल में न फंस कर अपना एक अलग सोच रखते हैं जो देश का सोच है। उन्होंने तो अन्ना के हक में खड़ें होने के लिए अपने पद और दल भी छोड़ने तक की पेशकश कर डाली, हम शुक्रगुजार और आभारी हैं उन सांसदों के कि उनकी चेतना मरी नहीं, वे आज भी देश और देशवासियों के हित की बात सोचते हैं। हमारे शासक सांसद अपनी सुविधा के लिए, अपना वेतन बढ़ाने के लिए तो संविधान और कानून से खूब छेड़छाड़ करते हैं लेकिन जनहित में ऐसा करने में उनके हाथ और दिमाग क्यों बंध जाते हैं। अब वक्त आ गया है कि सत्ता पक्ष-विपक्ष से जुड़े सभी सांसदों को इसका जवाब देना ही होगा। इसके लिए वह एक देशवासी होने के नाते और संसदीय प्रणाली में विश्वास रखने वाले सांसद की तरह बाध्य हैं। आज नहीं तो कल अन्ना की आवाज सुनी जायेगी क्योंकि आज देश का हर सच्चा नागरिक अन्ना बन गया है। अन्ना आज एक व्यक्ति नहीं एक ईमानदार मुहिम का नाम है इतिहास गवाह है ऐसी ईमानदार मुहिम अक्सर कामयाब ही हुई हैं।
अन्ना टीम स्वयं लोकपाल से क्यों भाग रही है.?
प्रिन्स कुमार
रामलीला मैदान में कल हुई प्रेस कांफ्रेंस में अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने साफ़ और स्पष्ट जवाब देते हुए लोकपाल बिल के दायरे में NGO को भी शामिल
किये जाने की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है. विशेषकर जो NGO सरकार से
पैसा नहीं लेते हैं उनको किसी भी कीमत में शामिल नहीं करने का एलान भी
किया. ग्राम प्रधान से लेकर देश के प्रधान तक सभी को लोकपाल बिल के दायरे
में लाने की जबरदस्ती और जिद्द पर अड़ी अन्ना टीम NGO को इस दायरे में लाने
के खिलाफ शायद इसलिए है, क्योंकि अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया,किरण
बेदी, संदीप पाण्डेय ,अखिल गोगोई और खुद अन्ना हजारे भी केवल NGO ही चलाते
हैं. अग्निवेश भी 3-4 NGO चलाने का ही धंधा करता है. और इन सबके NGO को देश
कि जनता की गरीबी के नाम पर करोड़ो रुपये का चंदा विदेशों से ही मिलता
है.इन दिनों पूरे देश को ईमानदारी और पारदर्शिता का पाठ पढ़ा रही ये टीम अब
लोकपाल बिल के दायरे में खुद आने से क्यों डर/भाग रही है.
भाई वाह...!!! क्या गज़ब की ईमानदारी है...!!!
इन दिनों अन्ना टीम की भक्ति में डूबी भीड़ के पास इस सवाल का कोई जवाब है क्या.....?????
जहां
तक सवाल है सरकार से सहायता प्राप्त और नहीं प्राप्त NGO का तो मई बताना
चाहूंगा कि.... भारत सरकार के Ministry of Home Affairs के Foreigners
Division की FCRA Wing के दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2008-09 तक
देश में कार्यरत ऐसे NGO's की संख्या 20088 थी, जिन्हें विदेशी सहायता
प्राप्त करने की अनुमति भारत सरकार द्वारा प्रदान की जा चुकी थी.इन्हीं
दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2006-07, 2007-08, 2008-09 के दौरान इन
NGO's को विदेशी सहायता के रुप में 31473.56 करोड़ रुपये प्राप्त हुये.
इसके अतिरिक्त देश में लगभग 33 लाख NGO's कार्यरत है.इनमें से अधिकांश NGO
भ्रष्ट राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट
सरकारी कर्मचारियों के परिजनों,परिचितों और उनके दलालों के है. केन्द्र
सरकार के विभिन्न विभागों के अतिरिक्त देश के सभी राज्यों की सरकारों
द्वारा जन कल्याण हेतु इन NGO's को आर्थिक मदद दी जाती है.एक अनुमान के
अनुसार इन NGO's को प्रतिवर्ष न्यूनतम लगभग 50,000.00 करोड़ रुपये देशी
विदेशी सहायता के रुप में प्राप्त होते हैं. इसका सीधा मतलब यह है की पिछले
एक दशक में इन NGO's को 5-6 लाख करोड़ की आर्थिक मदद मिली. ताज्जुब की बात
यह है की इतनी बड़ी रकम कब.? कहा.? कैसे.? और किस पर.? खर्च कर दी गई.
इसकी कोई जानकारी उस जनता को नहीं दी जाती जिसके कल्याण के लिये, जिसके
उत्थान के लिये विदेशी संस्थानों और देश की सरकारों द्वारा इन NGO's को
आर्थिक मदद दी जाती है.
इसका विवरण केवल भ्रष्ट NGO संचालकों, भ्रष्ट
नेताओ, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट बाबुओं, की जेबों तक सिमट कर रह
जाता है. भौतिक रूप से इस रकम का इस्तेमाल कहीं नज़र नहीं आता. NGO's को
मिलने वाली इतनी बड़ी सहायता राशि की प्राप्ति एवं उसके उपयोग की प्रक्रिया
बिल्कुल भी पारदर्शी नही है. देश के गरीबों, मजबूरों, मजदूरों, शोषितों,
दलितों, अनाथ बच्चो के उत्थान के नाम पर विदेशी संस्थानों और देश में
केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी विभागों से जनता की गाढ़ी
कमाई के दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's की कोई
जवाबदेही तय नहीं है. उनके द्वारा जनता के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के
भयंकर दुरुपयोग की चौकसी एवं जांच पड़ताल तथा उन्हें कठोर दंड दिए जाने का
कोई विशेष प्रावधान नहीं है. लोकपाल बिल कमेटी में शामिल सिविल सोसायटी के
उन सदस्यों ने जो खुद को सबसे बड़ा ईमानदार कहते हैं और जो स्वयम तथा उनके
साथ देशभर में india against corruption की मुहिम चलाने वाले उनके अधिकांश
साथी सहयोगी NGO's भी चलाते है लेकिन उन्होंने आजतक जनता के नाम पर जनता की
गाढ़ी कमाई के दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's के
खिलाफ आश्चार्यजनक रूप से एक शब्द नहीं बोला है, NGO's को लोकपाल बिल के
दायरे में लाने की बात तक नहीं की है. इसलिए यह आवश्यक है की NGO's को
विदेशी संस्थानों और देश में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी
विभागों से मिलने वाली आर्थिक सहायता को प्रस्तावित लोकपाल बिल के दायरे
में लाया जाए.
किये जाने की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है. विशेषकर जो NGO सरकार से
पैसा नहीं लेते हैं उनको किसी भी कीमत में शामिल नहीं करने का एलान भी
किया. ग्राम प्रधान से लेकर देश के प्रधान तक सभी को लोकपाल बिल के दायरे
में लाने की जबरदस्ती और जिद्द पर अड़ी अन्ना टीम NGO को इस दायरे में लाने
के खिलाफ शायद इसलिए है, क्योंकि अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया,किरण
बेदी, संदीप पाण्डेय ,अखिल गोगोई और खुद अन्ना हजारे भी केवल NGO ही चलाते
हैं. अग्निवेश भी 3-4 NGO चलाने का ही धंधा करता है. और इन सबके NGO को देश
कि जनता की गरीबी के नाम पर करोड़ो रुपये का चंदा विदेशों से ही मिलता
है.इन दिनों पूरे देश को ईमानदारी और पारदर्शिता का पाठ पढ़ा रही ये टीम अब
लोकपाल बिल के दायरे में खुद आने से क्यों डर/भाग रही है.
भाई वाह...!!! क्या गज़ब की ईमानदारी है...!!!
इन दिनों अन्ना टीम की भक्ति में डूबी भीड़ के पास इस सवाल का कोई जवाब है क्या.....?????
जहां
तक सवाल है सरकार से सहायता प्राप्त और नहीं प्राप्त NGO का तो मई बताना
चाहूंगा कि.... भारत सरकार के Ministry of Home Affairs के Foreigners
Division की FCRA Wing के दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2008-09 तक
देश में कार्यरत ऐसे NGO's की संख्या 20088 थी, जिन्हें विदेशी सहायता
प्राप्त करने की अनुमति भारत सरकार द्वारा प्रदान की जा चुकी थी.इन्हीं
दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2006-07, 2007-08, 2008-09 के दौरान इन
NGO's को विदेशी सहायता के रुप में 31473.56 करोड़ रुपये प्राप्त हुये.
इसके अतिरिक्त देश में लगभग 33 लाख NGO's कार्यरत है.इनमें से अधिकांश NGO
भ्रष्ट राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट
सरकारी कर्मचारियों के परिजनों,परिचितों और उनके दलालों के है. केन्द्र
सरकार के विभिन्न विभागों के अतिरिक्त देश के सभी राज्यों की सरकारों
द्वारा जन कल्याण हेतु इन NGO's को आर्थिक मदद दी जाती है.एक अनुमान के
अनुसार इन NGO's को प्रतिवर्ष न्यूनतम लगभग 50,000.00 करोड़ रुपये देशी
विदेशी सहायता के रुप में प्राप्त होते हैं. इसका सीधा मतलब यह है की पिछले
एक दशक में इन NGO's को 5-6 लाख करोड़ की आर्थिक मदद मिली. ताज्जुब की बात
यह है की इतनी बड़ी रकम कब.? कहा.? कैसे.? और किस पर.? खर्च कर दी गई.
इसकी कोई जानकारी उस जनता को नहीं दी जाती जिसके कल्याण के लिये, जिसके
उत्थान के लिये विदेशी संस्थानों और देश की सरकारों द्वारा इन NGO's को
आर्थिक मदद दी जाती है.
इसका विवरण केवल भ्रष्ट NGO संचालकों, भ्रष्ट
नेताओ, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट बाबुओं, की जेबों तक सिमट कर रह
जाता है. भौतिक रूप से इस रकम का इस्तेमाल कहीं नज़र नहीं आता. NGO's को
मिलने वाली इतनी बड़ी सहायता राशि की प्राप्ति एवं उसके उपयोग की प्रक्रिया
बिल्कुल भी पारदर्शी नही है. देश के गरीबों, मजबूरों, मजदूरों, शोषितों,
दलितों, अनाथ बच्चो के उत्थान के नाम पर विदेशी संस्थानों और देश में
केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी विभागों से जनता की गाढ़ी
कमाई के दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's की कोई
जवाबदेही तय नहीं है. उनके द्वारा जनता के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के
भयंकर दुरुपयोग की चौकसी एवं जांच पड़ताल तथा उन्हें कठोर दंड दिए जाने का
कोई विशेष प्रावधान नहीं है. लोकपाल बिल कमेटी में शामिल सिविल सोसायटी के
उन सदस्यों ने जो खुद को सबसे बड़ा ईमानदार कहते हैं और जो स्वयम तथा उनके
साथ देशभर में india against corruption की मुहिम चलाने वाले उनके अधिकांश
साथी सहयोगी NGO's भी चलाते है लेकिन उन्होंने आजतक जनता के नाम पर जनता की
गाढ़ी कमाई के दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's के
खिलाफ आश्चार्यजनक रूप से एक शब्द नहीं बोला है, NGO's को लोकपाल बिल के
दायरे में लाने की बात तक नहीं की है. इसलिए यह आवश्यक है की NGO's को
विदेशी संस्थानों और देश में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी
विभागों से मिलने वाली आर्थिक सहायता को प्रस्तावित लोकपाल बिल के दायरे
में लाया जाए.
Monday, 22 August 2011
जो पीते थे खून जनता का
जो पीते थे खून जनता का
अब वो नेता चूस रहे हैं गन्ना
क्यूंकि उनको मज़ा चखाने अब आ गए हैं हमारे अन्ना
अब वो नेता चूस रहे हैं गन्ना
क्यूंकि उनको मज़ा चखाने अब आ गए हैं हमारे अन्ना
ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,
ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,
दिल मे मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए,
ना दुआ, ना खुदा, ना हाथों मे कोई तलवार चाहिए,
मुसीबत मे किसी एक प्यारे साथी का हाथों मे हाथ चाहिए,
कहूँ ना मै कुछ, समझ जाए वो सब कुछ,
दिल मे उस के, अपने लिए ऐसे जज़्बात चाहिए,
उस दोस्त के चोट लगने पर हम भी दो आँसू बहाने का हक़ रखें,
और हमारे उन आँसुओं को पोंछने वाला उसी का रूमाल चाहिए,
मैं तो तैयार हूँ हर तूफान को तैर कर पार करने के लिए,
बस साहिल पर इन्तज़ार करता हुआ एक सच्चा दिलदार चाहिए,
उलझ सी जाती है ज़िन्दगी की किश्ती दुनिया की बीच मँझदार मे,
इस भँवर से पार उतारने के लिए किसी के नाम की पतवार चाहिए,
अकेले कोई भी सफर काटना मुश्किल हो जाता है,
मुझे भी इस लम्बे रास्ते पर एक अदद हमसफर चाहिए,
यूँ तो 'मित्र' का तमग़ा अपने नाम के साथ लगा कर घूमता हूँ,
पर कोई, जो कहे सच्चे मन से अपना दोस्त, ऐसा एक दोस्त चाहिए
दिल मे मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए,
ना दुआ, ना खुदा, ना हाथों मे कोई तलवार चाहिए,
मुसीबत मे किसी एक प्यारे साथी का हाथों मे हाथ चाहिए,
कहूँ ना मै कुछ, समझ जाए वो सब कुछ,
दिल मे उस के, अपने लिए ऐसे जज़्बात चाहिए,
उस दोस्त के चोट लगने पर हम भी दो आँसू बहाने का हक़ रखें,
और हमारे उन आँसुओं को पोंछने वाला उसी का रूमाल चाहिए,
मैं तो तैयार हूँ हर तूफान को तैर कर पार करने के लिए,
बस साहिल पर इन्तज़ार करता हुआ एक सच्चा दिलदार चाहिए,
उलझ सी जाती है ज़िन्दगी की किश्ती दुनिया की बीच मँझदार मे,
इस भँवर से पार उतारने के लिए किसी के नाम की पतवार चाहिए,
अकेले कोई भी सफर काटना मुश्किल हो जाता है,
मुझे भी इस लम्बे रास्ते पर एक अदद हमसफर चाहिए,
यूँ तो 'मित्र' का तमग़ा अपने नाम के साथ लगा कर घूमता हूँ,
पर कोई, जो कहे सच्चे मन से अपना दोस्त, ऐसा एक दोस्त चाहिए
माना दोस्ती का रीश्ता खून का नही होता
माना दोस्ती का रीश्ता खून का नही होता
लेकीन खुन के रीश्ते से कम भी नही होता
दोस्ती मे एक बात मुझे समझ नही आती है
दोस्त मे लाख बुराई हो उसमे अच्छाई ही क्यु नजर आती है
दोस्त बीठाता है आपको सर आखो पर
आपकी सारी परेशानी लेता है अपने उपर
आप की गलती सारी दुनीयासे चुपाता है
खुद के अच्छे कामो का शेर्य भी आपही को देता है
दोस्त होता है ऐसे
दीयो के लीये बाती जैसे
अन्धो के लीये लाठी जैसे
प्यासे के लीये पानी जैसे
बच्चे के लीये नानी जैसे
लेखक के लीये कलम जैसे
बीमार के लीये मलम जैसे
कुभार के लीये माती जैसे
कीसान के लीये खेती जैसे
भ्कत के लीये वरदान जैसे
मरने वाले के लीये जीवनदान जैसे
अन्त मे आप से एक ही बात है कहना
दोस्त को बुरा लगे ऐसा कोई काम ना करना
खुद भी खुश रहना और दोस्तो को भी रखना
चाहे कीतनी भी बडी मुशकील हो दोस्त का साथ ना छोडना
लेकीन खुन के रीश्ते से कम भी नही होता
दोस्ती मे एक बात मुझे समझ नही आती है
दोस्त मे लाख बुराई हो उसमे अच्छाई ही क्यु नजर आती है
दोस्त बीठाता है आपको सर आखो पर
आपकी सारी परेशानी लेता है अपने उपर
आप की गलती सारी दुनीयासे चुपाता है
खुद के अच्छे कामो का शेर्य भी आपही को देता है
दोस्त होता है ऐसे
दीयो के लीये बाती जैसे
अन्धो के लीये लाठी जैसे
प्यासे के लीये पानी जैसे
बच्चे के लीये नानी जैसे
लेखक के लीये कलम जैसे
बीमार के लीये मलम जैसे
कुभार के लीये माती जैसे
कीसान के लीये खेती जैसे
भ्कत के लीये वरदान जैसे
मरने वाले के लीये जीवनदान जैसे
अन्त मे आप से एक ही बात है कहना
दोस्त को बुरा लगे ऐसा कोई काम ना करना
खुद भी खुश रहना और दोस्तो को भी रखना
चाहे कीतनी भी बडी मुशकील हो दोस्त का साथ ना छोडना
Sunday, 21 August 2011
नक्सल क्षेत्र में आस्था दे रही कल्प वृक्ष
औरंगाबाद से प्रिन्स कुमार
कुटुम्बा प्रखंड के नक्सल प्रभावित परता गांव में कल्प वृक्ष आस्था दे रही है। बिहार एवं झारखंड राज्य के श्रद्धालुओं के लिए यह वृक्ष आस्था एवं विश्वास का प्रतीक है। प्रत्येक दिन वृक्ष के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। भयमुक्त होकर श्रद्धालु परता धाम पहुंचते हैं और कल्प वृक्ष का दर्शन कर अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं। प्रत्येक दिन 20 लीटर दूध से इस वृक्ष की पटवन की जाती है। करीब पांच सौ वर्ष पुरानी इस वृक्ष की प्रजाति और कहीं नहीं पाई गई है। बोधि वृक्ष की तरह इसे संरक्षण की आवश्यकता है। वृक्ष के पुजारी नागा गणेश दास बताते हैं कि 1947 के पहले वृक्ष सूख गया था परंतु तब के रहे माताजी ने इस वृक्ष को दूध से पटवन कर हरा किया। दूध से पटवन नहीं होने पर वृक्ष के पत्ते झड़ने लगते हैं। कहते हैं कि इस वृक्ष की महत्ता यह है कि जो मांगिए जो मिलता है। पुजारी कहते हैं कि स्वर्ग का वृक्ष धरती पर लहरा रही है और श्रद्धालुओं को मन्नतें पूरी कर रही है। कहते हैं कि इस वृक्ष को भगवान श्रीकृष्ण द्वापर में स्वर्ग से धरती पर लाया था। पुजारी की माने तो बिहार ही नहीं पूरे देश में यह वृक्ष यहां के अलावा और कहीं नहीं पाई गई है। वृक्ष का एक भी बीज कहीं अंकुरण नहीं लिया है। कहते हैं कि इस वृक्ष की पहचान पांच सौ वर्ष पहले हरे राम ब्रह्ममचारी जी ने किया था। उस समय बंगाली राज का साम्राज्य कायम था। बंगाली राज के उतराधिकारी श्यामजी ने कल्प वृक्ष के बगल में रामजानकी मंदिर का निर्माण कराया और 85 बिगहा जमीन दान में दी। आज यह जमीन परता मठ से बेदखल हो गया है और कई लोग इस पर कब्जा कर लिए हैं।Saturday, 20 August 2011
“दर्द होता रहा छटपटाते रहे, आईने॒से सदा चोट खाते रहे, वो वतन बेचकर मुस्कुरातेरहे हम वतन के लिए॒सिर कटाते रहे”
280 लाख करोड़ का सवाल है ...भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक केडाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आनेवाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है. या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते हैकि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है.ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिएजाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने किकोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसेदेश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारतपर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे Hkz’Vkpkfj;ksa ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरीतरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाखकरोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्टलोगों द्वारा जमा करवाई गई है. भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसाहमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है. हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकारहै.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जीस्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटालेअभी उजागर होने वाले है ........
|
See how Lokpal Bill can curb the politicians, Circulate it to create awareness
Existing System | System Proposed by civil society |
No politician or senior officer ever goes to jail despite huge evidence because Anti Corruption Branch (ACB) and CBI directly come under the government. Before starting investigation or initiating prosecution in any case, they have to take permission from the same bosses, against whom the case has to be investigated. | Lokpal at centre and Lokayukta at state level will be independent bodies. ACB and CBI will be merged into these bodies. They will have power to initiate investigations and prosecution against any officer or politician without needing anyone’s permission. Investigation should be completed within 1 year and trial to get over in next 1 year. Within two years, the corrupt should go to jail. |
No corrupt officer is dismissed from the job because Central Vigilance Commission, which is supposed to dismiss corrupt officers, is only an advisory body. Whenever it advises government to dismiss any senior corrupt officer, its advice is never implemented. | Lokpal and Lokayukta will have complete powers to order dismissal of a corrupt officer. CVC and all departmental vigilance will be merged into Lokpal and state vigilance will be merged into Lokayukta. |
No action is taken against corrupt judges because permission is required from the Chief Justice of India to even register an FIR against corrupt judges. | Lokpal & Lokayukta shall have powers to investigate and prosecute any judge without needing anyone’s permission. |
Nowhere to go - People expose corruption but no action is taken on their complaints. | Lokpal & Lokayukta will have to enquire into and hear every complaint. |
There is so much corruption within CBI and vigilance departments. Their functioning is so secret that it encourages corruption within these agencies. | All investigations in Lokpal & Lokayukta shall be transparent. After completion of investigation, all case records shall be open to public. Complaint against any staff of Lokpal & Lokayukta shall be enquired and punishment announced within two months. |
Weak and corrupt people are appointed as heads of anti-corruption agencies. | Politicians will have absolutely no say in selections of Chairperson and members of Lokpal & Lokayukta. Selections will take place through a transparent and public participatory process. |
Citizens face harassment in government offices. Sometimes they are forced to pay bribes. One can only complaint to senior officers. No action is taken on complaints because senior officers also get their cut. | Lokpal & Lokayukta will get public grievances resolved in time bound manner, impose a penalty of Rs 250 per day of delay to be deducted from the salary of guilty officer and award that amount as compensation to the aggrieved citizen. |
Nothing in law to recover ill gotten wealth. A corrupt person can come out of jail and enjoy that money. | Loss caused to the government due to corruption will be recovered from all accused. |
Small punishment for corruption- Punishment for corruption is minimum 6 months and maximum 7 years. | Enhanced punishment - The punishment would be minimum 5 years and maximum of life imprisonment. |
Dear All,
Please go through the details carefully & try to be part of this mission against corruption.
Things to know about Anna Hazare and Lok pal Bill-:
1.Who is Anna Hazare?
An ex-army man(Unmarried). Fought 1965 Indo-Pak War.
2.What's so special about him?
He built a village Ralegaon Siddhi in Ahamad Nagar district, Maharashtra
3.This village is a self-sustained model village. Energy is produced in the village itself from
solar power, biofuel and wind mills. In 1975, it used to be a poverty clad village. Now it is one
of the richest village in India. It has become a model for self-sustained, eco-friendly &
harmonic village.
4.This guy, Anna Hazare was awarded Padma Bhushan and is a known figure for his social
activities.
5.He is supporting a cause, the amendment of a law to curb corruption in India.
6. How that can be possible?
He is advocating for a Bill, The Lok Pal Bill (The Citizen Ombudsman Bill), that will form an
autonomous authority who will make politicians (ministers), bureaucrats (IAS/IPS) accountable for
their deeds.
7. It's an entirely new thing right..?
In 1972, the bill was proposed by then Law minister Mr. Shanti Bhushan. Since then it has been
neglected by the politicians and some are trying to change the bill to suit their theft
(corruption).
8. Oh.. He is going on a hunger strike for that whole thing of passing a Bill ! How can that be
possible in such a short span of time?
The first thing he is asking for is: the govt should come forward and announce that the bill is
going to be passed.
Next, they make a joint committee to DRAFT the LOK PAL BILL. 50% government participation and 50%
public participation. Bcoz u can't trust the govt entirely for making such a bill which does not
suit them.
9.What will happen when this bill is passed?
A LokPal will be appointed at the centre. He will have an autonomous charge, say like the Election
Commission of India. In each and every state, Lokayukta will be appointed. The job is to bring all
alleged party to trial in case of corruptions within 1 year. Within 2 years, the guilty will be
punished.
Pass this on n show ur support..
Spread it like fire;
Our Nation needs us... Please Contribute...
This is not just a forward, it’s the future of our Nation.
आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो.
इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये
इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये
------------
"Together we can & we will make the Difference …!”
Subscribe to:
Posts (Atom)