प्रिन्स
वृक्ष का हरियाली से परिपूर्ण भाग जो दृष्ट है वह वर्तमान है और उसका अदृष्ट भाग, जो धरती के भीतर है वह अतीत की तरह है। अतीत के कर्मो की पूंजी से वर्तमान का अस्तित्वरूपी भवन निर्मित हुआ है। वह उतना ही हरा-भरा होगा जितनी उसे कर्मो की उर्वर भूमि अतीत में प्राप्त हुई होगी। अत: वर्तमान के सुख के लिए अतीत का निष्कलंक होना आवश्यक है व भविष्य के सुखों के लिए वर्तमान का सुखद व उन्नत होना, अतीत में जो बोया होगा कड़वा या मीठा बीज, समय के पेड़ पर उसी के फल तो लगेंगे।
केवल चिंताओं की नाव से सांसारिक भवसागर पार नहीं किया जा सकता है। जीव अपने संचित कर्मो के दुष्प्रभावों से प्रेरित हो अच्छे कर्मो को टालता चला जाता है तथा बुरे कार्यो की ओर स्वत: खिंचा चला जाता है। जब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं तो पराजित सैनिक सा इधर-उधर किसी तांत्रिक, ज्योतिषी या दैवीय चमत्कार की प्रतीक्षा करता है। उनके आगे-पीछे मारा-मारा फिरता है, जाने कितने-कितने ताबीज व यंत्र धारण करता है। कितने-कितने गुरुओं के भ्रमित मोहजाल में फंसता है..लेकिन खुशी हाथ नहीं लगती। शांति छू भर नहीं पाती उल्टा संदेहों के मकड़जाल में पड़ जीवन को भयावह मोड़ पर छोड़ विक्षुब्ध सा दूसरी ओर उड़ चलता है। एक घायल व रुग्ण व्यक्ति को चिंताएं, दुआएं व कमजोरियां बांह पकड़कर प्राश्रय नहीं देतीं। प्राश्रय देता है तो उसका अपना पौरुष, जीवन से लड़ने की जिजीविषा व सार्थक दिशा की ओर अग्रसर होने वाली दृढ़ इच्छाशक्ति। देह में ऊर्जा, शक्ति, विश्वास, स्वाभिमान, अस्तित्वबोध व जीवन की उजास तभी आएगी जब वह स्वयं में ऊर्जा का संचार उठने व जीवन की दुर्बलताओं से लड़ने का साहस जुटाएगा। जीवन में, देह में, संकल्पों में यदि कोई बदलाव या शक्ति तभी पैदा होगी जब आप स्वयं में शक्ति का संचार करेंगे, संकल्पों में दृढ़ता लाएंगे, दृढ़ इच्छाशक्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर मन की हीनता, शक्तिहीनता व देह की असमर्थता का होम कर देंगे।
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