प्रिंस कुमार शर्मा
यह अन्ना हजारे की गिरफ्तारी आश्चर्यजनक नहीं है। पराजय की कगार पर खड़ा हर तानाशाह जनशक्ति के ज्वार को बंदूक और खाकी वर्दी की ताकत से दबाकर गर्दन अकड़ से घुमाते हुए कहता है-अब बोलो! किसी और में भी ताकत हो तो सामने आओ। नियति ने उसके लिए क्या सोचा हुआ है यह वह सोच भी नहीं पाता। सद्दाम हुसैन और हुस्नी मुबाकर भी संप्रग सरकार की तरह अकड़कर यही कहा करते थे। सोनिया गांधी की सरकार भी जनशक्ति के उभार को पहचान नहीं पा रही है। कांग्रेस ने तो इंदिरा गांधी के आपातकालीन अनुभवों से भी कोई सबक नहीं सीखा। आखिरकार इंदिरा गांधी को माफी मांगनी पड़ी थी।
भारत की मिट्टी और चेतना में स्वतंत्रता का भाव अंतर्निहित है। यहां कभी भी वैचारिक अभिव्यक्ति पर आघात सहन नहीं किया जाता। और फिर अन्ना चाहते क्या हैं? एक वयोवृद्ध गांधीवादी जीवन की सांध्य बेला में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनज्वार का नेतृत्व करने वाला दूसरा गांधी बन गया है। यह साबरमती का वह संत है जो कभी जोर से नहीं बोलता, कठोर भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, अपशब्द नहीं कहता और जो सरकार से बात करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। लेकिन इस सरकार ने 'पहले स्वागत फिर अपमान' वाली बाबा रामदेव पर अपनाई शैली अन्ना पर भी दोहराई। अन्ना सरकार से सम्मानपूर्वक बातचीत के लिए गए थे और उस वार्ता में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सहित सरकार के कैबिनेट मंत्री शामिल हुए थे। अन्ना ने जो बातें सरकार के सामने रखीं, उस पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया है? सरकार ने कहा-बहुत अच्छा। हम अन्ना की भावना से सहमत हैं। स्वयं प्रधानमंत्री और फिर प्रणब मुखर्जी का बयान आया कि वे कड़े से कड़े लोकपाल अधिनियम का प्रारूप बनाने के लिए तैयार हैं, लेकिन इस बैठक और इन सुरीले सरकारी स्वरों के तुरंत बाद क्या हुआ? सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने सार्वजनिक तौर पर अन्ना का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। वरिष्ठ मंत्रियों ने अखबारों में लेख लिखे, जिनमें उन्होंने जन लोकपाल की धज्जियां उड़ाते हुए कहा कि क्या ऐसा अधिनियम लाने से गांवों में पानी पहुंचेगा या बच्चों को शिक्षा मिलेगी? फिर कहा गया कि अन्ना संघ परिवार से समर्थन लेकर काम कर रहे हैं। यह अन्ना को चिढ़ाने के लिए कहा गया। और यह कहने वाले भूल गए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी देश के उतने ही जिम्मेदार नागरिक हैं जितने अन्य हैं। क्या संघ के स्वयंसेवक अपने नागरिक धर्म का पालन करने के लिए कोई कदम नहीं उठा सकते? जो लोग कश्मीर के जिहाद को समर्थन देते हैं और आतंकवादियों व अलगाववादियों से हाथ मिलाकर देश विरोधी मंचों पर स्थान साझा करने से नहीं डरते वे देश भर के संगठनों की सार्वजनिक सक्रियता से भयभीत हो उठते हैं। उसके बाद कांग्रेस के नेताओं ने खुले तौर पर अन्ना के लोकपाल प्रस्ताव को अव्यवहारिक कहना शुरू कर दिया। जो सरकार कल तक अन्ना से वायदा कर रही थी कि वह कड़े से कड़ा लोकपाल विधेयक सदन में लाएगी, वही अन्ना को दिए गए वायदों से मुकर कर संसद में एक ऐसा लोकपाल विधेयक का मसौदा लेकर आई जो अन्ना को कतई स्वीकार नहीं था और मूल वायदे से एकदम भिन्न था। अब इस परिदृश्य में विश्वासघात किसने किसके साथ किया?
जब इतने से भी कांग्रेस की बौखलाहट नहीं थमी और अन्ना के साथ जनज्वार बढ़ता गया तो कांग्रेस ने अंतिम हथियार के रूप में अन्ना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया। अगर अन्ना भ्रष्टाचारी हैं तो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने उन्हें सम्मानित करते हुए अपने साथ वार्ता की मेज पर क्यों बुलाया? जंतर-मंतर से लेकर राजघाट तक जो अन्ना जनता जनार्दन के सिरमौर बने रहे तथा स्कूली बच्चों से लेकर देहाती किसानों तक का समर्थन हासिल करते रहे, यह सरकार अब उन्हें भ्रष्टाचार में लिप्त अपराधी घोषित करने लगी। इससे बढ़कर आत्मघाती मूर्खता और क्या होगी? लेकिन यह सरकार उससे भी आगे अपने अंत को न्यौता देते हुए अन्ना हजारे को तिहाड़ जेल भेज बैठी।
अच्छा होता अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी भावना को समझते हुए सरकार स्वयं अन्ना के साथ ईमानदारी के साथ खड़ी हुई दिखती। क्या यह सरकार राहुल गांधी को निर्देश दे सकती है कि वह केवल पचास कार्यकर्ताओं के साथ दस कारों में अपना कार्यक्रम करें और भट्टा पारसौल या अमेठी न जाएं? सरकार जो शर्ते कांग्रेसी नेताओं पर नहीं थोप सकती, उन्हें जननायक पर कैसे थोपा जा सकता है?
आज देश में हताशा और निराशा का जो भाव गहराता जा रहा है उसके पीछे सत्ता पक्ष का भ्रष्टाचारियों का कवच बनने वाला रूप जिम्मेदार है। जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं और जिन्हें जनता का अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है, उनके विरुद्ध सरकार आक्रामक कार्रवाई कर रही है। ऐसी स्थिति में जनता की आवाज को दबाने वाली कार्रवाई के विरोध में बोलने के अलावा विपक्ष के सामने और कोई रास्ता नहीं बचता। यह विपक्ष का धर्म है। विपक्षी दल सत्ता पक्ष की बी टीम नहीं बन सकते। जनता न्यायपूर्ण मांगों के लिए सड़क पर उतरे और विपक्षी नेता गन्ने की खेती और टेलीकॉम नीति जैसे विषयों पर बहस करें ताकि सत्ता पक्ष अपनी गलतियों का नतीजा भुगतने से बचता रहे, यह संभव नहीं हो सकता। आज देश में पुन: 1977 जैसा जन ज्वार दिखने लगा है जो किसी के रोके रुक नहीं सकता।
भारत की मिट्टी और चेतना में स्वतंत्रता का भाव अंतर्निहित है। यहां कभी भी वैचारिक अभिव्यक्ति पर आघात सहन नहीं किया जाता। और फिर अन्ना चाहते क्या हैं? एक वयोवृद्ध गांधीवादी जीवन की सांध्य बेला में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनज्वार का नेतृत्व करने वाला दूसरा गांधी बन गया है। यह साबरमती का वह संत है जो कभी जोर से नहीं बोलता, कठोर भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, अपशब्द नहीं कहता और जो सरकार से बात करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। लेकिन इस सरकार ने 'पहले स्वागत फिर अपमान' वाली बाबा रामदेव पर अपनाई शैली अन्ना पर भी दोहराई। अन्ना सरकार से सम्मानपूर्वक बातचीत के लिए गए थे और उस वार्ता में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सहित सरकार के कैबिनेट मंत्री शामिल हुए थे। अन्ना ने जो बातें सरकार के सामने रखीं, उस पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया है? सरकार ने कहा-बहुत अच्छा। हम अन्ना की भावना से सहमत हैं। स्वयं प्रधानमंत्री और फिर प्रणब मुखर्जी का बयान आया कि वे कड़े से कड़े लोकपाल अधिनियम का प्रारूप बनाने के लिए तैयार हैं, लेकिन इस बैठक और इन सुरीले सरकारी स्वरों के तुरंत बाद क्या हुआ? सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने सार्वजनिक तौर पर अन्ना का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। वरिष्ठ मंत्रियों ने अखबारों में लेख लिखे, जिनमें उन्होंने जन लोकपाल की धज्जियां उड़ाते हुए कहा कि क्या ऐसा अधिनियम लाने से गांवों में पानी पहुंचेगा या बच्चों को शिक्षा मिलेगी? फिर कहा गया कि अन्ना संघ परिवार से समर्थन लेकर काम कर रहे हैं। यह अन्ना को चिढ़ाने के लिए कहा गया। और यह कहने वाले भूल गए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी देश के उतने ही जिम्मेदार नागरिक हैं जितने अन्य हैं। क्या संघ के स्वयंसेवक अपने नागरिक धर्म का पालन करने के लिए कोई कदम नहीं उठा सकते? जो लोग कश्मीर के जिहाद को समर्थन देते हैं और आतंकवादियों व अलगाववादियों से हाथ मिलाकर देश विरोधी मंचों पर स्थान साझा करने से नहीं डरते वे देश भर के संगठनों की सार्वजनिक सक्रियता से भयभीत हो उठते हैं। उसके बाद कांग्रेस के नेताओं ने खुले तौर पर अन्ना के लोकपाल प्रस्ताव को अव्यवहारिक कहना शुरू कर दिया। जो सरकार कल तक अन्ना से वायदा कर रही थी कि वह कड़े से कड़ा लोकपाल विधेयक सदन में लाएगी, वही अन्ना को दिए गए वायदों से मुकर कर संसद में एक ऐसा लोकपाल विधेयक का मसौदा लेकर आई जो अन्ना को कतई स्वीकार नहीं था और मूल वायदे से एकदम भिन्न था। अब इस परिदृश्य में विश्वासघात किसने किसके साथ किया?
जब इतने से भी कांग्रेस की बौखलाहट नहीं थमी और अन्ना के साथ जनज्वार बढ़ता गया तो कांग्रेस ने अंतिम हथियार के रूप में अन्ना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया। अगर अन्ना भ्रष्टाचारी हैं तो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने उन्हें सम्मानित करते हुए अपने साथ वार्ता की मेज पर क्यों बुलाया? जंतर-मंतर से लेकर राजघाट तक जो अन्ना जनता जनार्दन के सिरमौर बने रहे तथा स्कूली बच्चों से लेकर देहाती किसानों तक का समर्थन हासिल करते रहे, यह सरकार अब उन्हें भ्रष्टाचार में लिप्त अपराधी घोषित करने लगी। इससे बढ़कर आत्मघाती मूर्खता और क्या होगी? लेकिन यह सरकार उससे भी आगे अपने अंत को न्यौता देते हुए अन्ना हजारे को तिहाड़ जेल भेज बैठी।
अच्छा होता अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी भावना को समझते हुए सरकार स्वयं अन्ना के साथ ईमानदारी के साथ खड़ी हुई दिखती। क्या यह सरकार राहुल गांधी को निर्देश दे सकती है कि वह केवल पचास कार्यकर्ताओं के साथ दस कारों में अपना कार्यक्रम करें और भट्टा पारसौल या अमेठी न जाएं? सरकार जो शर्ते कांग्रेसी नेताओं पर नहीं थोप सकती, उन्हें जननायक पर कैसे थोपा जा सकता है?
आज देश में हताशा और निराशा का जो भाव गहराता जा रहा है उसके पीछे सत्ता पक्ष का भ्रष्टाचारियों का कवच बनने वाला रूप जिम्मेदार है। जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं और जिन्हें जनता का अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है, उनके विरुद्ध सरकार आक्रामक कार्रवाई कर रही है। ऐसी स्थिति में जनता की आवाज को दबाने वाली कार्रवाई के विरोध में बोलने के अलावा विपक्ष के सामने और कोई रास्ता नहीं बचता। यह विपक्ष का धर्म है। विपक्षी दल सत्ता पक्ष की बी टीम नहीं बन सकते। जनता न्यायपूर्ण मांगों के लिए सड़क पर उतरे और विपक्षी नेता गन्ने की खेती और टेलीकॉम नीति जैसे विषयों पर बहस करें ताकि सत्ता पक्ष अपनी गलतियों का नतीजा भुगतने से बचता रहे, यह संभव नहीं हो सकता। आज देश में पुन: 1977 जैसा जन ज्वार दिखने लगा है जो किसी के रोके रुक नहीं सकता।
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